Kabir

Kabir : भारत में निराशा के दौर में उम्मीद की किरण थे कबीर

यूरोप में रूसो, वाल्टेयर जैसे दार्शनिक प्रजातंत्र, आजादी की बात कर रहे थे तो भारत में कवि, चिंतक रचनाएं गाते गली-गली भीख मांग रहे थे. ऐसे दौर में Kabir एकमात्र उम्मीद की किरण बनकर उभरे.

 

विश्वजीत सिंह

जब यूरोप में रूसो, वाल्टेयर समता, स्वतन्त्रता, बंधुत्व, मानवता, प्रजातन्त्र, आजादी की बात कर रहे थे, तब खण्ड-खण्ड हो चुके गुलाम भारत में तमाम साधू, संत, महात्मा, भक्त, कवि, चिंतक उस दौर में सामंती शासकों की अत्याचारों की अनदेखी करते रहे. वे सांसारिक जीवन को छोड़ कर रचनाएं गाते हुए गली-गली भीख मांग रहे थे. ईश्वर, धर्म की महिमा बखानते रहे. ऐसे मे उम्मीद की एक ही किरण थे… Kabir.

शेष कंफ्यूज्ड थे, जिस तरह आज के दौर में वैश्वीकरण, उदारीकरण, बाजारीकरण के कारण मजहबी धर्म गुरु कंफ्यूज्ड हैं. जबकि कबीर जगा रहे थे :

” मोको कहां ढूंढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में,

ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में.

आडम्बर से युक्त धर्म के विरुद्ध यह स्वस्थ प्रतिक्रिया थी. क्षणिक आवेग या झल्लाहट का मनोवेग नहीं, अपितु बदल देने का बौद्धिक आग्रह था. यह आमजन के पक्ष में नया प्रयोग था, जिसमें पूर्व प्रचलित धर्म व्यवस्था के समानांतर एक वैकल्पिक संस्कृति देने की महती आकांक्षा थी.

तभी तो कबीर कहते हैं:

“कबिरा खड़ा बाजार में लिए मुराठा हाथ

जो घर जारै आपनो, चले हमारे साथ”

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ट्रांसफार्मेशन चाहते थे कबीर

कबीर की चिंता दुनिया को बदलने की थी. वह ट्रांसफॉर्मेशन चाहते थे, जैसे मार्क्स. वह यथास्थिति को बलात तोड़ देना चाहते हैं. क्योंकि यह यथास्थितिवाद (status quo) उनके सामाजिक स्वार्थों (collective interest) के विरुद्ध था.

इसीलिए वह कहते हैं: जो ‘व्यवस्थित-दुनिया’ को भस्मीभूत करने का साहस रखता है, वही हमारे साथ चले. अर्थात अपने हजारों वर्षों से ढो रहे कण्डिशनिंग माइंड को, प्रिज्युडिस को, डिस्ट्रॉय कर सकता है, अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकल सकता है, वही और सिर्फ वही क्रांति (revolution) कर सकता है, या ‘ एजेंट ऑफ चेंज’ बन सकता है। अन्यथा कंडिशनिंग माइंड से नूतन और मौलिक सर्जन, परिवर्तन संभव नहीं.

everyone has a different ‘ home ‘ , a different comfort zone in his psyche.

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क्या है कम्फोर्ट जोन….??

जातिवाद, वंशवाद, संप्रदायवाद,क्षेत्रवाद, भाषावाद, रंग, लिंग, नस्ल, Beliefs, religions, idols, ideals, ideologies, scriptures, ism —- etc etc.

तुलसी व उनके भक्तों का अलग ही रोना

तुलसीदास के भक्त आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं : कबीर का कोई साहित्यिक लक्ष्य नहीं था, वे पढ़े लिखे लोगों से दूर ही दूर अपना उपदेश सुनाया करते थे.’

सम्माननीय शुक्लाजी, कबीर के समय में पढ़े लिखे लोग कौन थे…??

या कि जिन्हें पढ़ने लिखने की इजाजत थी. ये प्रायः वही लोग थे जो घर जोड़ने की माया में जुटे हुए थे. वे भला कबीर की सुनते ही कैसे…??

ये लोग अपने कम्फर्ट जोन में खुश थे. Eat, drink and be merry. जिनका जीवन दर्शन है. They get into a rat race.

इसी के बारे में अकबर इलाहाबादी ने कहा था :

” हम क्या कहें अहबाब, क्या कार- ए- नुमायां कर गए

बी- ए- हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए.”

और पाश्चात्य दार्शनिक जेएस मिल ने कहा था कि :

“संतुष्ट सूअर होने से अच्छा है असंतुष्ट मनुष्य होना.”

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क्या है अपना घर जलाना

और कबीर के साथ चलने एवं अपना घर जलाने के लिए ऐसे ही असंतुष्ट सुकरात होते हैं जो existential crisis फील करते हैं। जो प्रश्न करते हैं खुद से, ये दुनिया क्या है? मैं कौन हूँ.? जीवन का उद्देश्य क्या है..?

जिनको इस दुनिया की पीड़ा से बेचैनी है, जो इस दुनिया को बेहतर बनाना चाहते हैं. इसीलिए कबीर के साथ चल पड़ने वाले लोगों में टैगोर, अंबेडकर जैसे लोग शामिल हैं.

इस घर जलाने वाले नायक के प्रति सैकड़ों वर्षों से लोगों के मन में इतना आकर्षण क्यों हैं? वह कौन सी जगह है, जहाँ जाने के लोभ में लोग घर जलाने को तैयार हो जाते हैं?

कबीर कहते हैं: ‘ अवधू बेगम देस हमारा.’

इस बेगमपुरा की नागरिकता की क्या शर्तें हैं..?? यह किस भूगोल में पाया जाता है. इसकी क्या विशेषता है? कबीर इसकी विशेषताएँ बताते हैं–

जहवां से आयो अमर वह देसवा.

पानी न पौन न धरती अकसवा, चाँद सूर न रैन दिवसवा.

ब्राह्मन, छत्री न सूद्र वैसवा, मुगलि पठान न सैयद सेखवा.

आदि जोति नहिं गौर गनेसवा, ब्रह्मा विस्नु महेस न सेसवा.

जोगी न जंगम मुनि दरवेसवा, आदि न अंत न काल कलेसवा.

दास कबीर ले आये संदेसवा, सार सब्द गहि चलै वहि देसवा.

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भेदभाव से मुक्त दुनिया का सपना

कबीर का यूटोपिया, स्वप्न अमरदेश है, जहां लोग जाति-वर्ण, ऊंच-नींच, आदि के भेद-भाव, विभेद से मुक्त है. जहाँ एक मानवीय और समुन्नत संसार बसाने की कल्पना है. जहाँ ‘ द अदर ‘ का भाव नहीं.

इस तरह हम देखते हैं कि कबीर की कोशिश मनुष्य, समाज, प्रकृति के खंड-खंड फलक को डिकोड कर उसको समग्रता में जानने की है जिसे मैनेजमेंट में systems theory कहते हैं.

उन्हें मनुष्य को होलिस्टिक जीवन दृष्टि, पूर्णता ( fulfillment) एवं अर्थपूर्ण ( meaningful) की, एक सूक्ष्म आँख देनी की बेचैनी है, जिसे अब्राहम मश्लो self-actualization need कहते हैं,

“what a man can be, he must be.”

यही वह बेचैनी है जो अलग-अलग संस्कृतियों, महापुरुषों में रही है. यही वह बेचैनी है जो किसी संस्कृति को महान एवं किसी को महामानव बनाती है, यही वह बेचैनी है जो धरती के अलग-अलग भूखंडों और इतिहास खंडों को एक सूत्र में पिरो देती है. यही वह बेचैनी है जिससे गालिब कहते हैं :

” बे दरो दीवार सा इक घर बनाया चाहिए

कोई हम साया न हो और पासबाँ कोई न हो.”

 

(विश्वजीत सिंह जनवादी युवा हैं. यह लेख उनके फेसबुक वाल से लिया गया है.)

 

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