अब प्लीज़! हो सके तो बंद कर दीजिए ….

सुरेंद्र सिंह चौधरी

सुरेंद्र सिंह चौधरी, सामाजिक कार्यकर्ता, नेता और किसान

तुलसीदास और उनकी चौपाइयों में जातिवादी घृणा को लेकर चर्चा जोरों पर है. हर कोई अपने तरीके से समर्थन या विरोध कर रहा है.
अभी रात के सवा ग्यारह बजे हैं, जगा हुआ हूं. एक पल के लिए दरवाजा खोलकर बाहर खुले बरामदे में आ गया. तभी गांव के एक कोने से, कानों में हारमोनियम और ढोलक के संगत में एक भजन गायक के सुरीले एवं रसीले कंठ से ऐसी स्वरलहरी उट्ठी के तन मन रस से भीग गया. एक तो गले का माधुर्य ऊपर से वै पंक्तियां, ” ऊधौ अबहिन माधवपुर का जाव, कन्हैया जी का लइ आवो बुलाय “! कृष्ण द्वारिका चले गए हैं, सारा ब्रज आंसुओं से भीगा है, नर नारी, पशु पक्षी, वृक्ष और लताएं, नदी, सरोवर सब गहन अवसाद में चले गए हैं. कृष्ण के वियोग में कृषकाय हो गई और रात दिन रुदन करती गोपियों को समझाने बुझाने और सांत्वना देने श्रीकृष्ण सखा ऊधौ जी मथुरा, गोकुल, वृंदावन और समूचे ब्रज में विचरण कर रहे हैं. जितना ही समझाने का प्रयास करते हैं उतना ही उलाहना पाते हैं. ब्रजवासियों के उस प्रेम मैं कैसा आकर्षण था कि सारे जीवधारी अपने अपने तरह से विरह के ताप से संतप्त हैं.

मैं नास्तिक हूं ऐसा मैं मानता हूं. कोई कुछ भी कहे मुझे, मैं प्रतिवाद नहीं करूंगा, लेकिन सच्चाई यह है कि इस भजन से मुझमें कृष्ण भक्ति नहीं जगी है. मैं उस दिव्य एवं अलौकिक प्रेम की एक झलक पाने को बेताब हो गया कि काश कोई मेरे लिए इतना व्याकुल हो जाता और मैं जान पाता तो नंगे पांव दौड़कर जाता. स्त्री हो या पुरुष, पशु पक्षी प्रेम की भाषा तो सब समझते हैं. लेकिन क्या प्रेम में चुंबन, आलिंगन तक की कामना न रह जाए? क्या ऐसा संभव है प्रेम में ?

बहरहाल, तुलसीदास, मनुस्मृति, रामायण आदि की कर्कश हो चुकी चर्चा को अब विराम देने की जरूरत है. कम से कम मैं तो अब नहीं लिख सकूंगा. थोड़े दिन की जिंदगी में कितना कुछ खो दिया जाता है. चले भी जाना है. कब? पता नहीं? क्या फायदा? कुदरत पर भी हमें भरोसा रखना चाहिए. अब तुलसीदास पर चर्चा बंद कर दीजिए, प्लीज.
हमारे गांवों में जब सड़कें, बिजली, अस्पताल, स्कूल नहीं थे. फिर भी बीमारी, गरीबी, अशिक्षा और असुविधाओं के बीच हम इतने जीवंत थे कि बड़े छोटे मिलकर दुखों से पार पा लेते थे लेकिन जो दुःख शूल की तरह अंदर गड़ गए थे उन्हें गीत संगीत और लोककथाओं के सहारे विस्मृत कर लेते थे. हम राम, कृष्ण को मानें न मानें लेकिन लोकधारा में अभी वह हैं. सबकुछ हटाते, काटते, छांटते जा तो रहे हैं लेकिन उस जाने से हम रीतते भी जा रहे हैं. मन में उद्विगनता थी तो अनगढ़ गायकों ने जैसे सुकून दे दिया. प्रेम की बातें भी कैसे असहनीय हो सकती हैं ?
हम आप सभी जानते हैं कि हंस मोती नहीं चुगता लेकिन भारतीय साहित्य में अनेक स्थानों पर बताया गया है कि कंकड़ पत्थर और सीपियों को छोड़कर हंस केवल मोती चुगता है. विज्ञान पच्चीस साल पहले तक संगीत को मानसिक विचलन या एक छलावा के रूप में परिभाषित करता रहा लेकिन अब कहता है कि संगीत हीलिंग प्रॉपर्टीज से संयुक्त है. सत्य क्या है इसका ओर छोर किसी को पता नहीं और शायद कभी चल भी नहीं पायेगा. इस नश्वर एवं अल्पकालीन जीवन में बहुत कुछ जान पाना संभव ही नहीं. प्रेम और सत्य के साथ सहिष्णुता का गुण हमें अपनाये रहना चाहिए ऐसा ही उचित मालूम पड़ता है.

समाज को जागरूक और प्रगतिशील बनाने के लिए क्या गाली गलौज ही सबसे परिमार्जित माध्यम बचा है? हमें अपने नेताओं की दोगली चालों पर भी बारीकी से अध्ययन करना होगा कि वह कल क्या बोल रहे थे और आज क्या बोल रहे हैं.

हम खड़े वहीं हैं जहां थे. रातों रात उसूल नहीं बदल जाते लेकिन बदलाव के लिए गाली गलौज और उद्दंडता से वितृष्णा हो गई है. लोहिया जी जब कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी बनाये तो उन्होंने सवर्णों को ही जिम्मेदारी सौंपी कि आप लोग जातिप्रथा के विरुद्ध खड़े हों और पिछड़ों को उनका हक अधिकार दिलाने के लिए सड़क से संसद तक संग्राम करें और उन्होंने किया भी. किसका किसका नाम लूं.

बात है लोकजीवन में सदाशयता और स्नेहिल संबंधों का अधोपतन हो रहा है. जहर तो मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व बो रहा है. गीता और रामायण अब निष्प्रभावी हो चुके हैं. उन्हीं पर टिके रहकर हम युद्ध की दिशा एक जाति पर केंद्रित होते देख रहे हैं. क्या वहां हमारे समर्थन में लोग नहीं खड़े हैं. हम उन्हें क्या जवाब दें ?

आप हमेशा किसी न किसी के प्रेम में आसक्त रहे हैं. अभी भी होंगे ही. ऐसा ही मेरे साथ भी रहा है. अभी भी प्रेम में हूं और एक नहीं कइयों के साथ. बड़ी उम्र के लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वह ईश्वर, अल्लाह की इबादत में रहें. मैं ऐसा नहीं कर पा रहा और शायद कभी नहीं कर पाऊंगा. सगुण जीवधारियों से ही प्रेम कर पाता हूं. जो ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान है लेकिन अदृश्य है, मैं उससे प्रेम नहीं कर पाता. मैं अपने हाथ से लगाये पेड़ पौधौं और पालतू पशुओं से भी प्रेम करता हूं. एक बड़ा सारस पक्षी जो अब जीवित नहीं है वह मुझसे प्रेम करता था और मैं उससे बेपनाह मुहब्बत करता था. वह मेरे हाथ से वह दाना चुगता था. मैं लखनऊ से गांव के लिए निकलता था तभी उसे पता चल जाता था कि मैं घर आ रहा हूं और रात 10 बजे जैसे ही गाड़ी से बाहर पांव रखता वह दौड़कर मेरे पास आ जाता. आज भी उसकी याद आते ही बिलख पड़ता हूं. मेरे फेसबुक पर दर्जनों महिला मित्र हैं जो लिखती पढ़ती हैं. कई बार ऐसा लगता है कि मैं खिंचा चला जा रहा हूं किसी एक की तरफ. फिर किसी और की तरफ. ऐसा होता रहता है. शायद मेरा अवचेतन मन प्यार चाहता है वह भी मनचाही स्त्री का. इसमें क्या पाप है ? किसी के लिए चाहत का पैदा होना मुहब्बत की शुरुआत मान सकते हैं. मैं इसी इकतरफा मुहब्बत में अपने आपको बिखरने से बचा पाता हूं. मैं किसी से मांग नहीं करता कि वह भी मुझे चाहे, कभी करूंगा भी नहीं. लेकिन मेरी चाहत बनी रहती है. चाहत की धीमी आँच पर मुहब्बत की चाशनी को पकते देखता हूं और अपने इस बावलेपन पर खुद ही हंस लेता हूं.

अगर मैं किसी की भक्ति में होता तो लिखता,बोलता, रोता,चिल्लाता कि फलां के बगैर मैं जिंदा नहीं रह सकता. इसलिए मैं भक्त तो नहीं ही हूं न राम का न कृष्ण का न महादेव का. न मैं मंदिर के भगवान के लिए रोता हूं न किसी खुदा की इबादत में सजदा करता हूँ.
मैं भी आम इंसानों की तरह तमाम कमजोरियों को ढोता एक मामूली सा जीव हूं जो अपनी सोच और समझ के मुताबिक इस दुखों से लबालब भरी दुनिया में किसी आस्ताने की तलाश में दर दर भटक रहा हूं.
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