निरंकुश रूप से फैला हुआ है अन्याय

निरंकुश रूप से फैला हुआ है अन्याय… न्यायालय के एकाध फैसलों से हालात नहीं बदलते

उर्मिलेश

न्यायालय जब अच्छा फ़ैसला करते हैं तो जम्हूरियत-पसंद बहुत सारे ‘लिबरल’ सोचते हैं कि अब निरंकुशता रूक जायेगी. देश में अमन-चैन और न्याय का राज होगा. शासन संविधान के अनुसार चलेगा. सिर्फ़ शक के आधार पर न किसी को जेल होगी और न किसी के घर पर बुल्डोजर चलेंगे. पर ऐसा सोचने वाले लोग मुग़ालते में होते हैं.

किसी एक या दो अच्छे अदालती फ़ैसले से ज़मीनी हालात नहीं बदलते. निश्चय ही कुछ ज़रूरी न्यायिक हस्तक्षेप से शासन या वर्चस्व की अन्य शक्तियों की मनमानी कुछ समय के लिए रूक सकती है. पर निरंकुश नज़रिये, अन्याय-अत्याचार और दमन-उत्पीडन का समूचा विचार और सिलसिला नहीं रूकता.

मणिपुर से लेकर नूंह तक नज़र उठाकर देख लीजिये. अपने शहर और गाँव में देखिये. मीडिया से बाज़ार तक देख लीजिये. वन और आदिवासी इलाक़ों में देखिये. रेल से एयरपोर्ट तक देखिये. सचिवालय, विद्यालय और विश्वविद्यालय में देखिये. जिस निरंकुश ढंग से अन्याय फैल रहा है, उसका संस्थागत विस्तार हो रहा है; उसे कोई अदालत भला कैसे रोक सकती है!

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न्यायालय किसी एक मामले में अपने फ़ैसले से चमत्कृत करते हैं, आशा जगाते हैं पर दर्जनों मामले में निराशाजनक फ़ैसले देते हैं या अनेक मौकों पर ख़ामोश रह जाते हैं. संविधान और उसके मूल्यों का हनन जारी रहता है. इसलिए अपने जैसे समाज में निरंकुशता के फैलाव को मुकम्मल तौर पर सिर्फ़ जनता रोक सकती है! इसके लिए लिबरल मूल्यों में यक़ीन करने वाले हों या बदलाववादी विचारों के लोग हों, सबको जनता में काम करना होगा.

जनता को कोसने से कुछ नहीं हासिल होगा. अगर आपके पास समझ है, ज्ञान और विवेक है तो उसे अपने स्टडी रूम तक सीमित मत करिये, कुछ जोखिम लेना होगा और विचारों को लोगों के बीच ले जाना होगा. कम से कम साफ़-साफ़ लिखिये और बोलिये तो. शब्दों की जलेबी मत बनाइये. अंधविश्वास, अन्याय और निरंकुशता की शक्तियाँ लोक-लुभावन भेष धारण कर समाज में अंदर तक दाखिल हो चुकी हैं और ज्ञानियों का बड़ा हिस्सा सिर्फ़ कुछ शहरी संगोष्ठियों या सेमिनारों तक सीमित है. ऐसे में सिर्फ़ अदालतों की तरफ़ देखना या उनकी आलोचना करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा. समाज में सच न्याय और संवैधानिक मूल्यों के के पक्ष में जनमत बनाने की ज़रूरत है. निस्संदेह, यह काम प्रथमतः सामाजिक-राजनीतिक संगठनों और संस्थाओं का है. बुद्धिजीवी चाहे वे लिबरल कहलाना चाहते हों या बदलाववादी; वे लोकतांत्रिक प्रतिरोध की आवाज़ बन सकते हैं.

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