सत्तासीन लोग और पैसे वाले अब पूजा पाठ की ठेकेदारी संभालने लगे हैं. यह आम भारतीयों की धार्मिक श्रद्धा और पूजा पाठ की प्रणाली से बिल्कुल अलग है, जिसमें नफरत नहीं थी. बड़े लोगों के धार्मिक प्रचार प्रसार में नफरत ज्यादा है, बता रहे हैं उर्मिलेश…
पहले बताया गया थाः ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं!’ लगता है अब बताया जायेगाः ‘गर्व से कहो हम सनातनी हैं!’ अमीर और अघाये यानी बड़े लोगों को अपनी सम्पत्ति, अपनी कामयाबी, अपने कल-कारख़ानों, बंगलों-हवेलियों, बेशक़ीमती गाड़ियों और अपने-अपने धर्मों, जातियों, संप्रदायों और अपने-अपने भगवानों पर गर्व होता है. ‘बड़े लोगों’ ने ही समाज में अपने-अपने धर्मों, जातियों और संप्रदायों का प्रचार किया है. बीते तीन-चार दशकों में यह बहुत ज़ोर-शोर से हुआ है.
छह दशक पहले की याद है, मेरी हिन्दू माँ का श्रद्धा-स्थल मेरे घर के सामने वाला पीपल का पेड़ था. उसकी जड़ों में वह जल ढारती थी और अपने इस छोटे बेटे से पीपल बाबा का प्रणाम करने को कहती थी. उसके मुँह से मैंने कभी किसी धर्म, जाति या संप्रदाय पर गर्व करने की बात नहीं सुनी. लेकिन पीपल बाबा या नीम के पेड़ से उसे बहुत लगाव था. मंदिर वह यदाकदा ही जाती थी. उन दिनों हमारे इलाक़े के देवी-देवताओं में काली माई सबसे लोकप्रिय थीं. हम बच्चों के बीच हनुमान जी ज़्यादा लोकप्रिय थे. शाम को जिस दिन फुटबॉल या हॉकी खेलकर लौटने में देर हो जाती, गाँव के सबसे घने बगीचे में बड़े वाले बरगद पेड़ के पास पहुँचते ही हम सारे बच्चे एक दूसरे का हाथ पकड़कर हनुमान जी को याद करते हुए आगे बढ़ते!
हमारे घर में उन दिनों आज के सबसे महत्वपूर्ण हिन्दू देवताओं में शायद ही कोई देवता नियमित तौर पर पूजा जाता था. इन देवताओं के मुक़ाबले काली जी या गंगा जी का ज़्यादा महत्व के साथ नाम लिया जाता था. इनसे कुछ कम महत्व अपने शहीद पूर्वजों का नहीं था. होली या ऐसे ही किसी ख़ास त्योहार के दिन अपने ख़ानदान के लोग धर्म या संप्रदाय में बताये किसी भगवान की जगह अपने पांच या सात पूर्वजों को श्रद्धा के साथ याद करते थे. उनकी याद में भोज होता और जुलूस भी निकलता था. हमारे वृहत्तर परिवार के लोग गाँव में आज भी यह स्मृति दिवस बहुत श्रद्धा के साथ मनाते हैं. संभवतः हमारे ये पाँच या सात पूर्वज आज़ादी से दशकों पहले कुछ बड़े सामंतों या किन्ही आततायियों के हमले का मुक़ाबला करते हुए शहीद हुए थे.
कुछ दशक पहले तक ग्रामीण भारत के दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदायों में हिन्दुत्व का कभी ज़ोर नहीं रहा..क्योंकि उनकी धार्मिकता का स्वरूप सामुदायिक रहा है. लेकिन हाल के दो-तीन दशकों में सबकुछ तेज़ी से बदला है..जय सियाराम या सीताराम का स्थान ‘जय श्री राम’ ने ले लिया है. अब नये आह्वान हैंः गर्व से कहो हम हिन्दू हैं या (अब तो) सनातन हैं!
लेकिन आम आदमी के लिए आज भी उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के मायने ज़्यादा हैं. एक आम आदमी को उस दिन, उस महीने, उस क्षण पर गर्व होता है, जिस वक्त उसके बेटे को पाँच साल की बेरोज़गारी के बाद नौकरी मिलती है! नौकरी पाने के लिए घूस देना पड़ा हो तो भी बेटे पर गर्व होता है. उससे ज्यादा गरीब आदमी को उस दिन गर्व होता है, जिस दिन उसकी झुग्गी में बिजली का बल्ब जलता है या रसोई में पूड़ी सब्ज़ी या चिकन बनता है. गर्व करने के सबके अपने-अपने कारण होते हैं. ये बात अलग है कि अख़बारों और टीवीपुरम् में पिछले दो-तीन दशकों से सिर्फ़ किसी धर्म या संप्रदाय पर गर्व करने के आह्वान गूंजते आ रहे हैं!
लेकिन हिंदुत्व का आह्वान करने वालों को शायद ही मालूम हो कि हिन्दुत्व का धर्म से ज़्यादा लेना-देना नहीं. यहाँ तक कि यह हिन्दू धर्म भी नहीं है. वस्तुतः यह एक राजनीतिक विचारधारा है, जिसके मूल प्रणेता सावरकर थे. अब आरएसएस-भाजपा और उनके आनुषंगिक संगठन इसके ध्वजवाहक बने हुए हैं. पिछले तीन-चार दशक में यह विचारधारा खूब फली-फूली है.