केपी सक्सेना

हास्य व्यंग्य के बेताज बादशाह थे केपी सक्सेना

वीर विनोद छाबड़ा

मैं केपी सक्सेना जी को केपी चाचा के तौर पर याद करता हूँ. वो मेरे पिता, उर्दू के मशहूर जनाब रामलाल साहेब के मित्र थे. मैं बहुत छोटा था उन दिनों. ये साठ के सालों के शुरूआत के दिन थे. वो चारबाग़ रेलवे स्टेशन पर सहायक स्टेशन मास्टर थे. हम स्टेशन के सामने मल्टी स्टोरी रेलवे कॉलोनी में रहते थे. इस नाते उनका हमारे यहां अक्सर आना होता था.
केपी चाचा को उर्दू से बेहद मोहब्बत थी. मेरे घर पर हिंदी-उर्दू के लेखकों का अक्सर जमावड़ा लगता था. केपी चाचा की शिरकत उसमें लाज़मी होती थी. उनके साथ उनके एक मित्र कन्हैया लाल यादव भी होते थे. उर्दू-हिंदी के रिश्तों को लेकर खूब लंबी-लंबी बहसें चलती. मेरे शीन-क़ाफ़ को मेरे पिता तो दुरुस्त करते ही थे, केपी चाचा भी जब कभी आते तो कुछ न कुछ दुरुस्त कर दिया करते. कुछ वक़्त के बाद मैंने लिखना शुरू किया.
स्थानीय अखबारो के साथ साथ मैं दिल्ली की फिल्मी पत्रिकाओं में भी छपता था. केपी चाचा मुझे बताते थे कि कहां गल्ती की मैंने. इस तरह वो मेरे भी मित्र बन गए. दरअसल हम पिता-पुत्र के वो पहले सांझे मित्र बने. वो कई बार मेरे पिता से चुटकी भी लेते – रामलाल जी, इस महीने आपके बेटे की ज़्यादा कहानियां छपी हैं. उनका फिल्म ज्ञान बेहद अच्छा रहा. कुछ अरसे बाद मैंने क्रिकेट पर भी लिखा. अखबार में जब भी लेख छपता तो सुबह सुबह सबसे पहले केपी चाचा का फोन आता था.
कभी कभी तो सुबह अख़बार आने से पहले उनका फोन आता. उनके फ़ोन से ही मुझे अपने लेख के छपने का पता चलता. मुझे उनके अपार क्रिकेट ज्ञान पर हैरत भी होती और खुशी भी. वो मेरे प्रशंसक थे. मैं बेहद पुलकित होता कि हास्य-व्यंग्य के बादशाह इतने बड़े स्टार लेखक मेरी क्रिकेट राइटिंग के प्रशंसक हैं. आमिर खान की क्रिकेट की पृष्ठभूमि पर बनी ‘लगान’ के संवाद केपी चाचा ने ही लिखे थे. मुझे उनके हास्य व्यंग्य पढ़ने में जितना आनंद मिलता था, उतना ही मज़ा उनके मुख से सुनने में भी आता था. वो इस फ़न के महारथी थे. केपी चाचा लाजवाब अदाकार भी रहे.
लखनऊ दूरदर्शन पर उन्होंने कई बार बेतरह हंसाया. उनका लिखा धारावाहिक ’बीबीयों नाते वाली’ बेहद मशहूर हुआ था. जब मेरे जानने वालों को ज्ञात होता था कि मैं केपी साहेब को जानता हूं और वो मुझे भी जानते हैं तो उनको हैरत होती थी. कई लोग मुझे हाथ लगा कर देखते कि किस दुनिया के हो तुम. उस समय मुझे जो फख्र हासिल होता था उन्हें लफ़्ज़ों में बयां करना मुश्किल है. जब अपने पिता जी याद में उनकी पहली बरसी पर मेरा लेख ‘स्वतंत्र भारत’ में दो किश्तों में छपा तो उन्होंने फोन करके कहा – तुम्हारी यादों के खजाने में जितना भी है सब लफ़्ज़ों में उड़ेल दो. मेरे पास आना, कुछ यादें मैं भी साझा करूँगा.
‘हिन्दुस्तान’ के संपादकीय पृष्ठ पर प्रत्येक बुधवार को उनका व्यंग्य स्तम्भ बरसों पढ़ा. अस्वस्था के कारण कुछ सप्ताह नहीं छपे तो उनके पुत्र रोहित फ़ोन किया. उन्होंने पक्की उम्मीद जगाई कि वो उनका लेख जल्दी ही फिर दिखेगा. मगर कुछ दिन बाद ३१ अक्टूबर २०१३ को ये उम्मीद हमेशा के लिए टूट गयी.
हास्य-व्यंग्य की दुनिया में उनके बेमिसाल योगदान के लिए केपी चाचा को सलाम, शुक्रिया.
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