मनुष्य को स्वतंत्रता में खुशी मिलती है धन में नहीं

मनुष्य को स्वतंत्रता में खुशी मिलती है धन में नहीं

पूंजीवाद और साम्यवाद धन पर केंद्रित विचारधाराएं हैं. इसके अलावा भी जितनी भी शासन की विचारधाराएं आईं, वह मनुष्यों को गुलाम बनाने की कवायद करती हैं. इसकी वजह से तरह तरह की अशांति आई और इसके कारण मानव दुखी हैं, बता रहे हैं सत्येन्द्र पीएस….

 

मनुष्य की सबसे बड़ी खुशी इसमें होती है कि वह जो करना चाहे वह उसे करने दिया जाए। एक पाश्चात्य राजनीति विज्ञानी ने कहा कि यह स्वतंत्रता वहीं तक होनी चाहिए कि सामने वाले की नाक पर घूंसा न लगे। लेकिन यह कहाँ हो पाता है? यूरोप के दार्शनिक ज्यां जैकस रूसो ने लिखा है कि मनुष्य स्वतंत्र जन्मा है लेकिन सर्वत्र बंधनो से जकड़ा है।

प्रेम, सद्व्यवहार, दया, मोह, माया, स्वार्थ वगैरा वगैरा इनबिल्ट चीजें होती हैं। जब बच्चा पैदा होता है तो स्वाभाविक रूप से अपने पैदा किए हुए बच्चे के प्रति बाप और खासकर मां का प्रेम होता है। 2000 साल पहले के दार्शनिक प्लेटो ने उसकी एक काल्पनिक तरकीब निकाली कि स्वस्थ लोग ही बच्चे पैदा करें और उसे राज्य को सौंप दें। इससे लोगों में निजी सम्पदा की विचारधारा आएगी ही नहीं। लेकिन यह व्यवहारिक रूप से उस समय सम्भव था न आज की तारीख में संभव है।

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गैर बराबरी खत्म करने का दूसरा हाहाकारी राजनीतिक आंदोलन बाकुनिन, क्रोपाटकिन, प्रौदा का अराजकतावादी विचारधारा का था। उनके मुताबिक गैर बराबरी की जड़ राज्य है। शासक होते हैं, इसीलिए शोषित होते हैं। लेकिन यह व्यवहारिक और स्वीकार्य नहीं हो पाया।

इसी अराजकतावादी विचारधारा और हीगल, कांट, फ़िक़्टे के उलट कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक ऐंगल्स का विचार आया। उन्होंने कहा कि अभी के शासक हटें और शोषित यानी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही हो जाए। मतलब राज्य खत्म नहीं हुआ। मार्क्स ने हीगल के दर्शन को कहा कि वह सिर के बल खड़ा है और उसे सीधा कर दिया जाए। जब हीगल ने दरिद्रता का दर्शन नाम से किताब लिखी तो उससे उलट मार्क्स ने दर्शन की दरिद्रता नाम की किताब दे मारी।

आखिरकार मार्क्सवादी विचार को लेकर लेनिन और माओत्से तुंग सत्ता पा गए। दोनों देशों में कोई औद्योगिक क्रांति नहीं थी। सोवियत संघ में सिपाही वहां के राजा के खिलाफ थे क्योंकि वह उन्हें सुविधाएं नहीं दे पा रहा था। उन्होंने विद्रोह कर दिया और लेनिन शासक हो गए। चीन में माओत्से तुंग ने छोटे छोटे जमींदारों को दबाकर सत्ता छीन ली। उत्तर कोरिया भी एक कम्युनिस्ट देश है।

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तीनो देशों की हालत देखें। वहां मानवाधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता नाम की कोई चीज नहीं है। किसी मार्क्सवादी समतावादी, गरीबो के हाथ सत्ता सौंपदो वादी को कहिए कि भैया तुम उत्तर कोरिया में बस जाओ तो वह तौबा कर लेगा। दुनिया भर के मार्क्सवादी रुझान के लोगों की पहली पसंद पूंजीवादी देश बन गए हैं। कोई भी यूरोप, अमेरिका, कनाडा आस्ट्रेलिया में बसने में सहज महसूस करता है जो धुर पूंजीवादी देश हैं। धार्मिक पूंजीवादी देशों में भी कोई बसना पसन्द नहीं करता, जिन्हें मुस्लिम देश कहा जाता है। समतावादी लोग इजरायल का विरोध कर सकते हैं लेकिन ईरान, इराक़ या फिलिस्तीन उन्हें बस जाने के लिए बुलाएं तो तौबा कर लेंगे।

अब आइए सरल भाषा मे समझते हैं। गरीब गुरबावादी लोगों को लेकर मेरा एक्सपीरिएंस बहुत खराब रहा है। ये कथित क्रांतिकारी अमूमन बहुत छोटी सोच के और दलाल टाइप लोग होते हैं। वह किसी को फोन भी करते हैं या मित्रता बनाते हैं तो अपने नफे नुकसान का हिसाब किताब करते हैं। अगर कोई आदमी काम का नहीं है तो उससे तत्काल कुट्टी। ये लोग अनीश्वरवादी के दिखावे के साथ भयानक ईश्वरवादी होते हैं कि किसी की मदद हम क्यों करें अगर प्रभु ही उसकी मदद नहीं कर रहा है! वहीं जो बन्दा ईश्वरवादी होता है उसमें थोड़ी दया धर्म, मानवता होती है, वह अमूमन किसी दुःखी पीड़ित व्यक्ति का मजाक नहीं उड़ाता। उसे डर होता है कि कहीं ईश्वर हमें भी उसी हालात में न ला दे। तो इस तरह की होती है क्रांति। पूंजीवादी तो ट्रिकल डाउन कराता है, लेकिन जो समतावादी है, उसे लगता है कि ये ससुरा अगर मरेगा, पीड़ित रहेगा तो Moदिया को वोट नहीं करेगा, उसको हटा देगा सत्ता से।

मजे की बात है कि मार्क्सवाद को लेनिन और माओत्से तुंग दिशा नहीं दे पाए कि सर्वहारा की तानाशाही हो और गरीब गुरबे सुखी हों और भारत के चिरकुट चिंतक जो कभी सीपीआई सीपीएम से सदस्य भी नहीं रहे, वह बताते है कि लेनिन, या माओ के उत्तराधिकारियों ने नास कर दिया! तुम मूर्ख हो भाई, वो विचारधारा कोई क्रांति नहीं ला पाई, बदलाव नहीं ला पाई। असल संकट यह है।

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खैर…

तमाम वादों के बीच मूल वाद यह है कि हर मनुष्य को अधिकतम स्वतंत्रता चाहिए। वह जितना ही स्वतंत्र होगा, उतना ही बेहतर शोध करेगा। वह उतना ही बेहतर चिंतन करेगा, वह उतना ही बेहतर इंसान बनेगा। स्वतंत्रता इस कदर हो कि किसी भी मनुष्य के लिए कोई भी बाउण्ड्री नहीं होनी चाहिए। कोई किसी पर रोक टोक न लगाए। यह एकाएक नहीँ हो सकता।लेकिन राज्य के भीतर, देश के भीतर लोगों को अधिकतम स्वतंत्रता देकर उन्हें खुश किया जा सकता है। हां.. अभी इतनी व्यवस्था करनी पड़ेगी कि लोगों को दूसरे की नाक पर घूंसा मारने की स्वतंत्रता न रहे। बाद में जब लोगों की गुलामी व गुस्सा कम होगा, कूल कूल हो जाएंगे तो उसकी भी जरूरत नही रहेगी। यूरोप ही नहीं, अपने ही देश के एक हिस्से कश्मीर में आज भी लोग गांवों में घर मे ताले नहीं लगाते, वहां के लोगों को पता नही है कि चोरी क्या होती है। कोई कश्मीरी मित्र हो तो उससे ताकीद कर सकते हैं।

जब मनुष्य धर्म, विचारधारा, राज्य, देश, भाषा, पंथ या किसी भी तरीके से झुंड में आते हैं तो वह अपराधी बनते हैं। वहअपने अपने वाले पर गर्व करते हैं और एक दूसरे का गर्व ऐसा टकराता है कि वह सामूहिक रूपसे एकदूसरे का खून पीने पर उतारू हो जाते हैं। अगर व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो तो व्यक्तिगत लड़ाई में उतना नुकसान नहीं होगा, जितना नुकसान सामूहिक लड़ाई में होता है।

जहां तक बराबरी और गैर बराबरी की बात है, यह इंटरचेंज होती रहती है। अभी यह कहा जाता है कि लोकतंत्र में जातियाँ शिथिल पड़ी हैं, लोग इंटरकास्ट मैरिज कर रहे है। तो यह खेल पहले भी था और भयानक था। बृहदारण्यक उपनिषद में तो श्रोतीय ब्राह्मण की पत्नी के साथ अगर कोई अवैध संबंध बना ले तो अवैध सम्बन्ध बनाने वाले व्यक्ति को शाप देकर मार देने की विधि बताई गई है। ब्राह्मण रावण जी जनक के दरबार में सीताजी से विवाह करने की इच्छा लेकर गए थे। सूर्पनखा जी विवाहित राम या लक्ष्मण से विवाह कर लेने को इक्छुक थीं। भगवान कृष्ण के जैविक पिता और थे, पालक और कोई। महाभारत में पांचो पांडव और कर्ण कैसे पैदा हुए? यह सब कहानी ही मानें तो भारत के लिखित इतिहास में षोडष महाजनपद के राजा कहां गए? मौर्य वंश के उत्तराधिकारी, गुप्त वंश, शुंग वंश, कण्व वंश, वर्धन वंश किसी का पता नहीं कि उनके भाई पट्टीदारी वाले आज कौन जात हैं?

वह सब छोड़िये। निज़ामुद्दीन में ग़ालिब अकेडमी के सामने एक गोरे चिट्टे अफगानी ब्रीड के दिखने वाले मिले। बैग बेच रहे थे कंधे पर लादकर। उन्होंने बताया कि मैं बलबन का वंशज हूँ। मुझे जरा भी आश्चर्य नही कि वह बलबन के ही वंशज होंगे। इसी तरह अलाउद्दीन खिलजी, इल्तुतमिश, तुगलक, सैयद, लोदी के वंशज भी कहीं साइकिल पर चाट पपड़ी बेच रहे होंगे या अंडे का ठेला लगाए होंगे! यह सब जात पात, स्तर ऊपर नीचे होता रहता है भारत में। यह कोई चिंता का विषय नहीं है।

असल चीज है कि हर व्यक्ति को शारीरिक श्रम मानसिक श्रम करने का अवसर हो। उसकी जिंदगी की न्यूनतम जरूरतें पूरी हों। उसके भीतर के प्रेम, दया, करुणा, क्षमा का भाव बना रहे। आत्मज्ञान और खुद के दुखों को कम करने के लिए हर व्यक्ति काम करे। लोगों के निजी चिंतन निजी जीवन मे न्यूनतम हस्तक्षेप हो। लोगों को 10 घण्टे काम, बैंक, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड, बीमा, आयकर, गृहकर, जलकर, पुलिसिया डंडे, दर्जनों पासवर्ड, रिफंड, क्रेडिट स्कोर, गैजेट्स आदि आदि जैसे पागलपन में न फंसाया जाए। उसकी जिंदगी में न्यूनतम हस्तक्षेप करके उसे सुकून से खाकर सोने दिया जाए। यही विकास है, यही मानवता है, यही अमीरी इंडेक्स है। एक दौर में इंडस्ट्रियल इंडेक्स की जगह हैप्पीनेस इंडेक्स की बात होने भी लगी थी, लेकिन फिर लोगों को 10 घण्टे काम, युद्ध व तरह तरह की कानूनी और कथित सुविधा की मुसीबतों में फंसा दिया गया।

रुपये, धन, प्रोस्पेरिटी, वैज्ञानिक प्रगति की जगह प्यार, मोहब्बत, दार्शनिक चिंतन, ध्यान, मानव शरीर के बदलावों आदि पर बात और उसी पर काम करने की जरूरत है। पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों एकसमान बीमारी हैं। दोनों हाय पैसा हाय पैसा में फँसाये हुए हैं। और पूंजीवादी व्यवस्था की तुलना में साम्यवादी ज्यादा मुअऊआ हैं, नास्तिकता वाले ज्यादा अमानुषिक और हृदयहीन व सब कुछ पैसे से तौलने वाले, चवन्नी अठन्नी में बिक जाने वाले हैं। इसकी वजह यह है कि वह ज्यादा ही हाय पैसा हाय पैसा में लगे हुए हैं कि धन ही सब कुछ है। तो जैसे ही उनको मलाई का जूठन भी मिल जाता है तो वह भागकर पूंजीवाद का पांव पकड़ लेते है। या मौका पाते ही ज्यादा बड़े लुटेरे निकलते हैं, क्योंकि दीन धर्म ईमान तो अफीम होता है, शोषण का साधन होता है उनकी नज़र में।

दरअसल विश्व को मध्यमार्ग की जरूरत है। मने मंगल सनीचर को मुर्गा नहीं खाना है शेष दिन खा सकते हैं। भैंसे की बलि दे सकते हैं, लेकिन गाय काटना पाप है टाइप। थोड़ा सा लोगो पर प्रतिबंध हो कि वह दूसरे की नाक न तोड़ने पाएं, ज्यादा फ्रीडम हो। मनोरंजन हो, हंस खुश हो लेने का मौका हो। मच्छर को मार डालें, उसको पाप न समझें। लेकिन यूँ ही तितली को मारते न चलें। और सबका ध्यान खुद की शरीर पर हो। खुद के दुखों पर हो। दुख के कारणों को जानने पर हो।

 

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