आपका जन्म और जीवन अमूल्य है... शरीर का और खुद का सम्मान करें

आपका जन्म और जीवन अमूल्य है… शरीर का और खुद का सम्मान करें

बाबाओं द्वारा शरीर, भोग विलासिता की बेइज्जती की जाती है. वहीं वह लोग खुद ही उसी विलासिता में फंसे रहते हैं. अपने शरीर से प्रेम और मानव जन्म की अमूल्यता के बारे में बता रहे हैं सत्येन्द्र पीएस…

 

जो प्रेम गली आए ही नहीं, प्रियतम का ठिकाना क्या जानें?

जिसने कभी प्रेम किया ही नहीं, वो प्रेम निभाना क्या जानें?

बाबा लोग तगड़ा ज्ञान देने में माहिर होते हैं. जनता को वे बहुत कन्फ्यूज करते हैं. अक्सर आप बाबाओं को कहते हुए सुनते हैं कि मानव शरीर में क्या रखा है. मानव शरीर को बेकार साबित करने के लिए कभी कभी भारी भरकम शब्दों का इस्तेमाल करते हैं कि यह अस्थि मज्जा है. कभी इसके प्रति यह कहकर घृणा पैदा करते हैं कि यह गू मूत है. इसको क्या प्रेम करना है. कभी कभी नश्वर कहकर शरीर की उपेक्षा करते हैं. माथे पर टीकी भभूत पोत लेंगे. आम इंसानों से अलग कपड़ा पहनेंगे कि हम अपने शरीर का ध्यान नहीं दे रहे हैं क्योंकि यह गू मूत है. तमाम नागा बाबा हो जाते हैं. उनको लगता है कि शरीर को प्रताड़ित कर देने से ही हमको कोई उपलब्धि मिल जाएगी.

एक नजर इधर भीः सुसाइडल टेंडेंसी आती है… जब हम अपने जीवन का मूल्य नहीं समझते

शरीर को प्रताड़ित करके कोई स्प्रिचुअल नॉलेज हासिल कर लेने का दर्शन बहुत पुराना है. गौतम बुद्ध राजा के बेटे थे. जब उन्हें जन्म से मृत्यु तक के दुखों का अहसास हुआ तो घर द्वार छोड़कर तपस्या करने निकल पड़े. महल छोड़कर जंगल चले गए. लंबे समय तक भूखे रहे. उसके बाद उन्हें सुजाता ने खीर खिलाई.

मुझे बार बार लगता है कि कि सुजाता ने गौतम बुद्ध को खीर खिलाई, उसी समय फील आया होगा कि खीर ही सत्य है… जगत मिथ्या. खैर.. यह तो मजाक वाली बात हुई. हकीकत यह है कि जब उन्होंने अपने शरीर को बड़ी प्रताड़ना दी तब उन्हें यह भी अहसास हुआ कि मध्य मार्ग ही सही है. शरीर को प्रताड़ित करने पर शरीर खत्म होता है. उससे ज्ञान प्राप्त नहीं होता है. इसलिए शरीर को प्रताड़ित करके भी खराब नहीं करना है, शरीर को भोग विलासिता में फंसाकर भी खराब नहीं करना है. इसकी जगह प्रकृति के साथ रहना है, उसी के साथ चलना है. यह ज्ञान मिलने के बाद ही वह वीणा के तारों वाली कविता आई. बुद्ध ने कहा कि जीवन वीणा की तरह है. वीणा के तार अगर अधिक कस दिए जाएं तो वे टूट जाएंगे. अगर उन्हें ढीला छोड़ दिया जाए तो उनसे संगीत न निकलेगा. संगीत पैदा करने के लिए उसे मध्य में लाना होगा.

एक नजर इधर भीः जन्म से मृत्यु तक मनुष्य सुख के पीछे भागता है लेकिन सुख मिलता ही नहीं

जीवन के अमूल्यता को समझना जरूरी है. मनुष्य जन्म अगर 8 क्षण और 10 संपद से युक्त है तो आपका जन्म सफल है. इस संसार में आप बंदर बन सकते थे. चूहा बन सकते थे. गाय बन सकते थे, घोड़ी बन सकते थे. अनगिनत जीव जंतु हैं. किसी भी रूप औऱ किसी भी योनि में आप जा सकते थे. उस वक्त आपकी इतनी क्षमता नहीं होती, जितनी अभी है.

इसके अलावा आप नरक में जन्म ले सकते थे. प्रेत बन सकते थे. म्लेच्छ बन सकते थे. लंबी उम्र वाले देव लोक में जन्म ले सकते थे. या शारीरिक अक्षमता के साथ जन्म ले सकते थे. किसी युद्ध या अभाव वाले देश में जन्म ले सकते थे.

अगर इस बुरी अवस्था में आप रहते तो आपकी क्या हालत होती. नरक, प्रेत या पशु के रूप में जन्म लेते तो तमाम दुखों के साथ उसी में फंसे रहते. म्लेच्छ होते तो समझ ही न पाते कि क्या उचित है क्या अनुचित है. देवता ही बन जाते तो उसी मस्ती में हजारों साल उलझे रहते और कितनी मोनोटोनस होती जिंदगी. अगर किसी अभाव और युद्धग्रस्त देश में पैदा हो गए होते तो कितने तबाह रहते. अगर विकलांगता लेकर जन्म लेते तो उसकी अलग पीड़ा रहती. आपने अगर मनुष्य के रूप में जन्म लिया है तो इतना सब होने से बचे हुए हैं. आप अपने को इन जीवों से श्रेष्ठ समझ सकते हैं क्योंकि आपकी क्षमता है कि इन पर आधिपत्य कर लें. इन जीवों को मारकर खा जाएं या इनकी सेवा कर पाएं. ऐसे में मानव जीवन को अनमोल समझें मनुष्य जन्म को अनमोल समझें. यह आपको प्रकृति का एक तोहफा है, जो आपको बेहतर करने, बेहतर जीने के लिए दिया गया है. इसलिए नहीं दिया गया है कि इसको प्रताड़ित करें, इसको नष्ट करें, इसको बर्बाद करें. इसे मांस मज्जा और पाप कहें तो यह गलत है.

एक नजर इधर भीः जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं है इसलिए कर्म पर केंद्रित रहना ही बेहतर उपाय

मुंडकोपनिषद में यही बात लिखी गई और शरीर के महत्त्व को बल दिया गया. मुंडकोपनिषद के तीसरे मुंडक का चौथा श्लोक देखें…

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादातपसो पाप्यलिंगात्

एतैरूपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैय आत्मा विशते ब्रह्मधाम

आत्मज्ञान बलहीन व्यक्ति को नहीं मिल सकता. मानसिक प्रमाद में पड़ा व्यक्ति भी इसे नहीं पा सकता. प्रयोजनहीन तप करने वाला भी इसे नहीं पा सकता. इन उपायों से जो इसे पाने का प्रयत्न करता है, उसे आत्मज्ञान क्या प्राप्त होगा, आत्मा उससे पीठ फेरकर ब्रह्मधाम में जा छिपती है. उसके सामने प्रकट ही नहीं होती.

यानी अगर आपका शरीर नहीं दुरुस्त है. आपकी अस्थि मज्जा, गू, मूत दुरुस्त नहीं है तो कुछ मिलने वाला नहीं है. कुछ भी परा और अपरा पाने के लिए जरूरी है कि शरीर दुरुस्त रहे. इसलिए इसे सजाए संवारे रहें. इसे सुंदर और स्वस्थ बनाए रहें. आपको इससे सबसे ज्यादा प्रेम करना है. यही सभी का आधार है.

लेकिन इसमें फंसना नहीं है. वही बुद्ध की बात कि बहुत ज्यादा ढीला न छोड़ो, न बहुत टाइट करो, वर्ना जीवन संगीतमय नहीं रह जाएगा. दोनों में अति में ही दुख पैदा होने लगता है.

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष अपरा विद्या (Scientific knowledge) है. वहीं जिस विद्या से उस अक्षर ब्रह्म का ज्ञान हो, वह परा विद्या (spiritual knowledge) है. अगर ऋग्वेद वगैरा को किनारे भी कर दें तो अभी जिसे हम विज्ञान कहते हैं, उसे ही अपरा विद्या मानें. इससे अलग एक स्प्रिचुअल नॉलेज होता है. साइंटिफिक नॉलेज बहुत सीमित है और उसके बाद का यूनिवर्स बहुत व्यापक है. ऐसे में अपरा से थक जाने और निराश हो जाने पर परा की ओऱ जाना स्वाभाविक है. और यह भी सत्य है कि उसी परा से अपरा निकलता रहता है. दोनों में अन्योन्याश्रित संबंध है.

 

0Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *