आज 31 दिसंबर है. साल का आखिरी दिन. अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक. 1 जनवरी से नए साल की शुरुआत हो जाएगी. संपूर्ण विश्व 2023 को विदा दे रहा है और 2024 के स्वागत की तैयारी कर रहा है. ईसवी सन इस समय विश्व में सर्वाधिक प्रचलन में है, इसलिए 1 जनवरी को ही पूरी दुनिया के हर कोने में नया साल मनाया जाता है. इसमें कोई प्रॉबल्म भी नहीं है. भारत ने भी ईसवी सन को स्वीकार किया है और 1 जनवरी से ही नया साल माना जाता है. सेलरी, वेतन वृद्धि, महीनों और दिनों की गणना से लेकर सारे कामकाज ईसवी सन वाले कैलेंडर से निर्धारित है. भारत में विक्रम संवत की गणना होती है, जो ईसा से 57 साल पहले से गिना जाता है. यानी अभी 2023 ईसवी चल रहा है, इसमें 57 साल और जोड़ दें तो विक्रम संवत 2080 चल रहा है. एक शक संवत भी चलता है. शक संवत ईसवी वाले कैलेंडर से 78 साल पीछे है. इसका मतलब अभी 2023-78 यानी 1945 शक संवत चल रहा है. ईसवी कैलेंडर को लेकर सबसे ज्यादा किच्चाइन ऐसे मूर्ख प्रकृति के लोग करते हैं, जिन्हें यह भी नहीं पता होता कि अभी कौन सा विक्रम संवत और कौन सा शक संवत चल रहा है.
ऐसा नहीं कि भारत को यह गणनाएं पश्चिम के देशों या यूरोप ने दी हैं. गर्मी, जाड़ा, बरसात, ऋतु परिवर्तन जैसी चीजें पश्चिम एशिया या ब्रिटेन फ्रांस के लोगों के भारत आने के पहले भी होता था. भारतीयों को इसके बारे में विषद ज्ञान भी था. अब यूरोप की गणनाओं से भारत की गणनाओं का तालमेल बिठाया गया है और इसके साथ ही इसके वैश्विक स्वरूप को भारत ने स्वीकार किया है, जिससे आम नागरिकों को भ्रम न होने पाए.
काल यानी समय की गणना के लिए मिस्र, मेसोपोटामिया आदि सहित विश्व की समस्त सभ्यताओं ने आकाशीय स्थिति और उसमें खासकर सूर्य व चंद्रमा की गति का इस्तेमाल किया है. भारत में इससे इतर जाकर आत्मा के स्वरूप, जन्म जन्मांतर की व्यवस्था व कर्म व उसके फल भोग, अनंत ब्रह्माण्ड के साथ मनुष्य के संबंध आदि पर भी अध्ययन किया गया.
कुछ पाश्चात्य वैज्ञानिक भारतीय ज्योतिष पर ग्रीक व यवनों का प्रभाव मानते हैं. वहीं यह भी देखने को मिलता है कि विश्व के अनेक विद्यार्थी भारत में अध्ययन के लिए आए औऱ उन्होंने भारत रहकर यहां के आचार्यों से शास्त्रों का अध्ययन किया. ह्वेनसांग, अल बरूनी, इब्नबतूता आदि ने इसका जिक्र किया.
भारत में समय की गणना के बारे में वेदों में झलक मिलती है. पिंड और ब्रह्माण्ड के पारस्परिक संबंधों के बारे में वेद में मिलना शुरू हो जाता है. वेद, आरण्यक, ब्राह्मण उपनिषद आदि को धार्मिक रचना माना जाता है. लेकिन इसमें ज्योतिष, आयुर्वेद, शिल्प की पर्याप्त चर्चा की गई है. अथर्ववेद तो पूरी तरह से आयुर्वेद और चिकित्सा विधियों से भरा हुआ है. इसी तरह से इन साहित्यों में मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, ग्रहण, ग्रह, कक्षा, नक्षत्र, दिन-रात का मान, उसका छोटा या बड़ा होने जैसे विषयों पर विचार किया गया.
डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर ने इंडियन गजेटियर में लिखा है कि 8वीं सदी में अरबों ने भारत से ज्योतिष विद्या सीखी और भारतीय ज्योतिष सिद्धांतों को ‘सिन्दहिन्द’ नाम से अरबी में अनुवाद किया. अरबी में लिखी गई पुस्तक आदन उल अम्बाफितल कालूली अतिब्बा नामक पुस्तक में लिखा गया है कि भारतीयय विद्वानों ने अरबी के अंतर्गत बगदाद की राज्यसभा में जाकर ज्योतिष, चिकित्सा आदि शास्त्रों की शिक्षा दी थी. कर्क नाम के एक विद्वान संवत 694 में बादशाह अल मंसूर के दरबार में ज्योतिष व चिकित्सा की शिक्षा देने गए थे.
मैक्समूलर ने ‘इंडियाः ह्वाट इट कैन टीच अस’ में लिखा है कि भारतवासी आकाश मंडल और नक्षत्र मंडल आदि के बारे में अन्य देशों के ऋणी नहीं हैं अपितु उसके मूल आविष्कारक हैं. फ्रांस के पर्यटक फ्रैंक्विस वर्नियर ने लिखा है, ‘भारतीय अपनी गणना द्वारा चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण की सटीक भविष्यवाणी करते हैं. इनका ज्योतिष ज्ञान प्राचीन व मौलिक है.’
वेदों की तुलना में शतपथ ब्राह्मण, वृहदारण्यक, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण आदि में ज्योतिष की चर्चा विस्तृत रूप से मिलती है. इस काल में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुद्ध, गुरु, शुक्र, शनि 7 ग्रहों का विवेचन मिलता है. ऋग्वेद में वर्ष के 12 चान्द्र मास और एक अधिमास का उल्लेख है. तैत्तिरीय संहिता में 12 महीनों के नाम मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभस, नभस्य, ईष, ऊर्जा, सहस, सहस्य, तपस और तपस्य का वर्णन मिलता है. अधिमास को संसर्प और क्षय मास को अहस्पति कहा गया.
तैत्तरीय ब्राह्मण में ऋतुओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है…
तस्य ते वसन्तः शिरः। ग्रीष्मोदक्षिणः पक्षः
वर्षः पुच्छम्। शदरुत्तर पक्षः । हेमंतो मध्यम।
यानी साल का सिर वसंत है. गर्मी दक्षिण पक्ष है. वर्षा ऋतु पूंछ है. शरद ऋतु उत्तर पक्ष है. हेमंत ऋतु मध्यम या मध्यभाग है.
याज्ञवल्क्य स्मृति में 9 ग्रहों का वर्णन है….
सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः
शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्च्येति ग्रहाः स्मृताः
अगर हम काल गणना और ज्योतिष की अलग विधा की शुरुआत की हिस्ट्री देखें तो सबसे पहला नाम लगध का आता है. लगध ने वेदांग ज्योतिष की रचना कर ज्योतिष को स्वतंत्र रूप से स्थापित किया. वेदांग ज्योतिष में ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद ज्योतिष तीन ग्रंथ माने गए हैं. ऋग्वेद ज्योतिष में 36 कारिकाएं हैं. यजुर्वेद ज्योतिष में 49 कारिकाएं हैं, लेकिन इसमें 36 ऋग्वेद की हैं औऱ सिर्फ 13 नई हैं. अथर्व ज्योतिष में 162 श्लोक हैं. इसमें फलित के हिसाब से अथर्व ज्योतिष को महत्त्वपूर्ण माना गया है.
लगध ने 5 साल का युग, माघशुल्कादि वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, पर्व, विषुवत तिथि, नक्षत्र अधिमास जैसे विषय प्रतिपादित किए हैं. वैदिक ज्योतिष में नक्षत्रों, तिथियों, चान्द्रमासों, दोनों विषुवत और दोनों अयनों का वर्णन है. 5 वर्षों के युग को चांद्र युग चक्र कहा गया है.
पूर्वमध्यकाल (501 ईसवी से 1000 ईसवी तक) में ज्योतिष के 3 स्कंध सिद्धांत, संहिता और होरा सामने आ गए थे. आर्यभट्ट (476-550 ईसवी) ने आर्यभट्टीयम नाम का ग्रंथ लिखा. आर्यभट्ट ने धरती की गति, परिधि, व्यास आदि का विवेचन किया और ग्रहण जैसे विषयों पर सटीक वैज्ञानिक विवेचन किया. त्रिकंध ज्योतिष के आचार्य वराहमिहिर (485 ईसवी) ने पूर्व के सिद्धांतों का संग्रह ‘पंच सिद्धांतकारिका’ में किया और साथ ही संहिता ज्योतिष के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘बृहत्संहिता’ की रचना की. इसके अलावा कल्याण वर्मा (578 ईसवी) ने यवनों के होराशास्त्र का सार संग्रह करके सारावली नामक फलित ग्रंथ की रचना की. ब्रह्मगुप्त (520 ईसवी) ने ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ की रचना की.
उत्तर मध्यकाल (1001 ईसवी से 1600 ईसवी तक) में ज्योतिष के साहित्य का विकास हुआ. लंबन, नति, आयनबलन, आक्षबलन, आयनदृक्कर्म, आक्षदृक्कर्म, भूभाबिम्ब साधन, ग्रहों के स्पष्टीकरण के विभिन्न गणित और तिथि के माध्यम से ग्रहों का मिलान किया जाने लगा. इस युग में यंत्र निर्माण का काम भी होने लगा. भास्कराचार्य ( जन्म 1114 ईसवी) और महेन्द्र सूरि (1528 ईसवी) ने अनेक यंत्रों के निर्माण की विधि और यंत्रों द्वारा ग्रहों की चाल जानने का तरीका बताया. इसी दौर में इक्कवाल, इंदुवार, इशराफ आदि यवन आचार्यों ने योगों को जानने की कोशिश की. साथ ही रमल शास्त्र, मुहूर्त शास्त्र और शकुन शास्त्र का भी विकास होने लगा.
भास्कराचार्य की ‘लीलावती बीजगणित’, ‘सिद्धांत शिरोमणि’, ‘करण कुतूहल’ और सर्वतोभद्र आदि प्रसिद्ध हुईं. मकरंद सिद्धांत ज्योतिष के विद्वान थे और पंचांग निर्माण में मकरंद सारिणी बहुत प्रसिद्ध हुई। केशव (1300 ईसवी) ने ‘जातकपद्धति’, ‘ताजिक पद्धति’, मुहूर्त तत्त्व, वर्ष ग्रहसिद्धि, कुंडाष्टक लक्षण, गणित दीपिका, ग्रहकौतुक ग्रंथों की रचना की है. महेंद्र सूरि का यंत्रराज नामग ग्रह गणित ग्रंथ बहुत फेमस है. ढुंढिराज ने 1300 ईसवी के आसपास जातकाभरणम् नाम से फलित ग्रंथ की रचना की.
आधुनिक काल 1601 ईसवी से 1951 ईसवी तक को माना जाता है. ज्योतिष के इतिहासकारों का कहना है कि इस काल में खासकर मुगल शासन में विद्वानों को राजाओं का संरक्षण नहीं मिलने के कारण ज्योतिष के प्रसार व विकास में बाधाएं आईं. इस काल में शकुन, प्रश्न, मुहूर्त, जन्म पत्र के साहित्य फले फूले.
इस काल में कमलाकर भट्ट का सिद्धांततत्वविवेक नामक गणित ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रचा. सके अलावा 1780 ईसवी में जयपुर के महराज जयसिंह ने ज्योतिष पर विशेष ध्यान दिया. बनारस के संस्कृत विश्वविद्यालय, दिल्ली के जंतर मंतर और जयपुर की वेधशाला जयसिंह की ही बनवाई हुई है. जयसिंह ने यूरोप में प्रचलित तारासूचियों में अनेक त्रुटियां बताई और भारतीय ज्योतिष के आधार पर नई सारणियां तैयार कराईं.
सामंत चंद्रशेखर ने अपनी पुस्तक ‘सिद्धांत दर्पण’ में ग्रहों की गतियों के विभिन्न प्रकार बताए हैं.
अंग्रेजों के काल का ज्योतिष को प्रमुख योगदान अनुवाद रहा है. तमाम ग्रंथों का भारतीय भाषाओं में और भारत के ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया. संपूर्णानंद ने ‘ज्योतिर्विनोद’ नामक पुस्तक में कापरनिकस, जियोइनो, गैलीलियो, कैप्लर आदि के मुताबिक ग्रह, उपग्रह और अवांतर ग्रहों के स्वरूप के बारे में बताया. महावीर प्रसाद श्रीवास्तव ने सूर्य सिद्धांत का आधुनिक सिद्धांतों के आधार पर विज्ञानभाष्य लिखा. इस काल में पाश्चात्य ज्योतिष और भारतीय ज्योतिष ज्ञान परस्पर संपर्क में आए और इसका मानकीकरण और आधुनिक वैज्ञानिक विवेचन हुआ.
आज हम जो नया वर्ष मनाने जा रहे हैं, वह प्राचीन ऋषियों व आधुनिक विज्ञान के तालमेल से तैयार किया गया है. भारत ने प्राच्य विद्या के साथ यूरोप और अन्य देशों से तालमेल बिठाया है. इसमें कोई धार्मिक या जातीय मसला नहीं है. इसलिए मस्त रहें और नया साल मनाएं.
नववर्ष की शुभकामनाएं.