कल से ही मोहल्ले में हुआ एक हादसा घूम रहा है दिमाग में। एक अग्रवाल फेमिली है जो जयपुर जा रही थी किसी पारिवारिक उत्सव में शामिल होने। बस का एक्सीडेंट हुआ। पति पत्नी और 15 साल का बेटा उस एक्सीडेंट में मर गए। इंटर में पढ़ने वाली एक बेटी बची है जो अपनी मौसी के यहां गई थी।
बस सड़क पर सबसे सेफ होती है। दूसरे को भले मार दे, लेकिन अगर कोई भीषण एक्सीडेंट न हो तो बस में बैठे लोग सेफ ही होते हैं। शायद यही सोचकर वो लोग अपनी कार से न जाकर बस से गए होंगे। बस में कम से कम 50 लोग सवार थे। एक्सीडेंट में उन्हीं 3 की स्पॉट पर मौत हुई जैसे किसी ने दुश्मनी वश चुनकर मार दिया हो!
इतनी अनिश्चितता है कि कुछ भी पता नहीं होता कि कब क्या हो जाए। और हम चिरकुट मानव उनकी व्याख्या करते हैं और वजह खोजते हैं। सच्चाई यह है कि हमको कुछ भी नहीं पता है। जितनी वैज्ञानिक प्रगतियाँ हैं, सभी बड़ा सा शून्य है। उससे कोई व्याख्या, कोई समाधान नहीं हो सकता, कम से कम मुझे कोई तार्किकता या ज्ञान की बात नहीं दिखती है।
ऐसा लगता है कि हम लोग घण्टा हैं। हम लोगों को बजा कोई और ही रहा है। हम लोग सही मायने में ज्ञान शून्य हैं। घण्टा कुछ नहीं पता है। फालतू का ज्ञानी बने इतराये फिरते हैं।
हमारे हाथ में महज इतना है कि अपने सुख के लिए सब कुछ करें। और और सुख तभी मिलता है जब हम दूसरों को सुखी होने वाला काम करते हैं। आसपड़ोस खुश तो हम भी खुश, वाला हिसाब है। ज्यादातर लोग बकरी हो जाते हैं और में में करते हैं कि मैंने ये किया मैंने वो किया। यह दुख देता है। आप किसी की हेल्प भी करते हैं तो इसलिए करते हैं कि आपको अच्छा लगता है, तभी सुखी रह सकते हैं। हम यही कर सकते हैं स्वच्छ और निर्मल जल वाले जलाशय की तरह बन जाएँ, अपने को बेहद शुद्ध बना लें।
जब तक हमारे भीतर लन्द फंद रहेगा, काम और विषय भोग रहेगा,तब तक दुःख जाने वाला नहीं है। हम किसी की मदद भी करते हैं तो दिखाने के लिए। कोई सामान खरीदते हैं तो दूसरे को दिखाने के लिए। मकान, कार और सुख सुविधाएं लोगों को दिखाना चाहते हैं। और दिखाना भी किसको चाहते हैं? अपने परिचित 100/50 लोगों को। उससे ज्यादा लोग तो अमूमन हमको जानते भी नहीं हैं, उन्ही में अपने आपको बड़कवा बनते हैं और वह देखने को तैयार नहीं हुए तो हम झंड हो जाते हैं।
अभी इंडिया के एक बड़े सेठ साल भर से बेटे की शादी कर रहे हैं। उनकी पूरी पीआर टीम लगी है जो सोशल मीडिया से अखबार और चैनल तक फोटो, फीड और खबरें झोंक रही है कि आज सोने का कपड़ा पहना, आज फलाना को नचाया, आज ये खाया, आज वो पिया। उनकी बकलोली का आम इंसान पर क्या असर है? उनकी इस दिमागी विकृति पर कुछ लोग सोशल मीडिया पर चर्चा कर लेते हैं, इसके अलावा दुनिया पर क्या फर्क पड़ता है? आप यह सब करके भी मुंह से खाएंगे, उसी अंग से हगेंगे, उसी तरीके से सेक्स करेंगे, उसी तरीके से सोएंगे, उसी तरीके से चुम्मा चाटी और आलिंगन करेंगे जैसे धरती का एक आम इंसान करके मजे लेता है। आप बदल क्या पाए भाई? पैसे ने थोड़ी मानसिक विकृति ला दी है, और क्या हासिल है आपका? वह भी अगर कोई झटका लगना होगा तो कोई आपको भी बजाकर चला जाएगा, न कोई डॉक्टर काम आएगा न कोई नचनिया बजनिया। हकीकत तो यही है!
सुखी तो वही है जो अपने लिए या दूसरों के लिए भी कोई इच्छा नहीं पैदा करता। अधर्म से उन्नति नहीं चाहता।
हालांकि ऐसे लोग बहुत मामूली होते हैं जो इस चरम सुख तक पहुँच पाएं। राग द्वेष यश अपयश, सुख, दुःख से मुक्त हो पाएं।
गौतम बुद्ध कहते हैं…
यथापि रहदो गम्भीरो विप्पसन्नो अनाविलो ।
एवं धम्मानि सुत्वान विप्पसीदन्ति पण्डिता ।।7।।
(यथापि हृदो गम्भीरो विप्रसन्नोऽनाबिलः ।
एवं धर्मान् श्रुत्वा विप्रसीदन्ति पण्डिताः ॥7॥)
सब्बत्थ वे सप्पुरिसा चजन्ति न कामकामा लपयन्ति सन्तो। सुखेन फुट्ठा अथवा दुखेन न उच्चावचं पंडिता दस्सयन्ति।।8।। (सर्वत्र वै सत्पुरुषा ब्रजन्ति न कामकामा लपन्ति सन्तः ।
सुखेन स्पृष्टा अथवा दुःखेन नोच्चावचं पण्डिता दर्शयन्ति ॥8॥)
न अत्तहेतु न परस्स हेतु,
न पुत्तमिच्छे न धनं न रट्ठं।
न इच्छेय्य अधम्मेन समिद्धिमत्तनो,
स सीलवा पञजवा धम्मिको सिया ।।9।।
(नात्महेतोः न परस्य हेतोः,
न पुत्रमिच्छेत् न धनं न राष्ट्रम।
नेच्छेद् अधर्मेण समृद्धिमात्मनः,
स शीलवान् प्रज्ञावान् धार्मिकः स्यात् ।।9।।)
अप्पका ते मनुस्सेसु ये जना पारगामिनो।
अथायं इतरा पजा तीरमेवानुधावति ।।10।।
(अल्पकास्ते मनुष्येषु ये जनाः पारगामिनः।
अथेमा इतराः प्रजाः तीरमेवानुधावति।।10।।)
जैसे गहरा जलाशय स्वच्छ और निर्मल (जल वाला) होता है, वैसे ही धर्म को सुनकर पण्डित लोग शुद्ध हो जाते हैं।
सत्पुरुष सभी (छन्द-राग आदि) को त्याग देते हैं, वे कामभोगों के लिए बात नहीं चलाते। सुख मिले या दुःख, पण्डितजन विकार नहीं प्रदर्शन करते।
जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्र, धन और राज्य नहीं चाहता और न अधर्म से अपनी उन्नति चाहता है, वही शीलवान्, प्रज्ञावान् और धार्मिक है।
मनुष्यों में पार जाने वाले थोड़े ही है, यह दूसरे लोग तो किनारे ही किनारे दौड़ने वाले है।
यही सुख का मार्ग है कि जलाशय की तरह गहरे और पवित्र बन जाइये। राग, द्वेष, भौतिक चीजों के पीछे भागने और उसमें सुख तलाशने की कवायद बंद कर दीजिए। अपने या दूसरे के लिए कुछ अपेक्षा या अनपेक्षा पाले हुए इस हद तक न बैठे रहिए कि वह न होने पर पगला ही जाएं। हालांकि ऐसा हो नहीं पाता, लेकिन इस दिशा में जितने कदम चल लिया जाए, समझ मे आता जाता है कि हमारा सारा ज्ञान विज्ञान घण्टा है और अभी हमें बहुत कुछ करना है।
हमारे पूर्वजों ने आग का आविष्कार किया और कई हजार साल की प्रगति के बाद हम पाइप्ड गैस तक पहुँचे हैं। और उस पर भात दाल और नेनुआ की सब्जी पका पा रहे हैं। हम इतनी पीढ़ियों के प्रति थैंकफुल हैं! वैसे अभी भी हमारे लिए यह आसान कहाँ है? दिल्ली में नेनुआ 100 रुपये किलो है। लंगड़ा आम 40 रुपये किलो रहकर गरीबों को संभाले हुए है वरना चौसा 100 रुपये किलो और दशहरी 80 रुपये किलो बिक रहा है। हमारी औकात इतनी ही गुणा गणित करने भर को है!