अपनी चोरी अच्छी और दूसरे की चोरी अन्याय लगती हो तो आप अपने भीतर के बोध की हत्या कर चुके हैं

अपनी चोरी अच्छी और दूसरे की चोरी अन्याय लगती हो तो आप अपने भीतर के बोध की हत्या कर चुके हैं

सत्येन्द्र पीएस

एक मेरे परिचित भाई साहब रोजाना कांग्रेस को गरियाते थे। वह कांग्रेस, सपा, बसपा आदि दलों के प्रति बहुत ही निष्ठुर थे। संभवतः अभी भी होंगे। वह राष्ट्रीय सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी से बहुत प्रभावित थे। आरएसएस-भाजपा के अलावा वह हर किसी को चोर मानते थे। इसी तरह से बिजली विभाग वाले चोर हैं, प्राइमरी के मास्टर चोर हैं, पुलिस विभाग वाले चोर हैं, न्यायपालिका भ्रष्ट है आदि आदि का जाप उनका लगातार चलता ही रहता था।

मैं सुनता रहता था। एक दिन उनसे कहा कि भाई साहब आप रोज कंटिया मारकर बिजली की चोरी करते हैं। दूसरे को तो चोर बताते हैं, खुद बिजली चुराते हैं। मेरे यह कहने से उन्हें जरा सा भी अपराधबोध नहीं हुआ। उन्होंने बताया कि यह चोरी नहीं है। सरकार बिजली कर्मचारियों को चोरी करवाती है, कारोबारियों को हजारों किलोवॉट कंटिया मरवाती है इसलिए हम लोगों को बिजली महंगी मिलती है। इस तरह से वह चोरी नहीं करते थे, बल्कि महंगी बिजली की भरपाई करने के लिए रोजाना कंटिया मारते थे। सरकार उन्हें और बिजली कर्मचारियों को चोरी करने व करवाने के लिए मजबूर कर रही थी।

एक नजर इधर भीः जलाशय की तरह पवित्र और गहरे बन जाइए यही सुख का मार्ग है

इत्तेफाक से इस बीच भाजपा सरकार बन गई। तब भी वह कंटिया मारते थे, तब भी उनका वही तर्क था कि बिजली विभाग वाले चोरी करते हैं। हां, उन्होंने बीच से सरकार हटा दिया। उनका यह कहना था कि कर्मचारी तो पुराने चोर हैं, सरकार चाहे जितनी ईमानदार है, वह क्या कर सकती है।

भारत में आप किसी से भी बात करें तो वह यही बताता है कि सामने वाला गड़बड़ है। सबने अपनी सुविधा के मुताबिक एक नैतिकता, ईमानदारी, शुचिता गढ़ रखी है। लोग खुद रिश्वत लेते हैं, इधर उधर से झींटने के चक्कर में लगे रहते हैं, फिर भी उन्हें सामने वाला ही बेईमान लगता है। उनके पिता, भाई अगर प्राइमरी में मास्टर हैं, बिजली विभाग में हैं, पुलिस में हैं और उनसे अच्छे संबंध हैं, तब तक वह चोर नहीं लगेंगे। वह व्यक्ति अपना घर छोड़कर बगल वाले घरों के सरकारी कर्मचारियों को रिश्वतखोर, कामचोर बताता है।

एक नजर इधर भीः धर्म रस का पान करने वाला प्रसन्न चित्त से सुखपूर्वक सोता है पण्डित बुद्ध के उपदिष्ट धर्म में सदा रमण करता है

मेरा मानना है कि मनुष्य स्वभावतः बुरा नहीं होता है। उसके इनर में गड़बड़ नहीं है। इंटरनली वह शुद्ध है, लोगों के प्रति सहृदय है। जब वह समाज में आता है तो समाज उसे अपनी सुविधा के मुताबिक सुसंस्कृत करके अपने जैसा बनाता है। यह बनने बनाने की प्रक्रिया ऐसी होती है कि उसमें व्यक्ति अपने आसपास के माहौल के मुताबिक, अपने आसपास के लोगों के मुताबिक हो जाता है और परिभाषाएं भी गढ़ लेता है।

लेकिन सुख उसी में है जब आप अपने अंतरतम को बनाए रखें। कभी एक छोटे से बच्चे का व्यवहार देखें। वह किस तरह से लोगों को देखता है, किस तरह हंसता है, लोगों से किस तरह सहृदयता दिखाता है। वही अधिकतम अपने भीतर बनाए रखें। दरअसल यही धर्मानुकूल आचरण है कि स्वयं के भीतरी स्वभाव को बनाए रखें। यह अहसास आपको खुद हो जाएगा कि आप गड़बड़ कर रहे हैं। गड़बड़ करने में हमेशा ही डर, निराशा, अशांति, हलचल रहती है। आप अपने गड़बड़ को छिपाने के लिए और गड़बड़ करते जाते हैं, आपकी हंसी, आपका व्यवहार कृत्रिम होता जाता है। आप खुद ही अपने बुने अशांति के जाल में फंसते जाते हैं।

गौतम बुद्ध ने इसे बहुत सरल शब्दों में बताया है कि जो भली भांति धर्मानुचरण करते हैं, वह कठिन मार्ग को भी बड़ी आसानी से पार कर जाते हैं।

यह आपको अपने विजडम से पहचानना होता है कि अच्छा या बुरा क्या है। यह सार्वभौम और सार्वकालिक होता है। ऐसा नहीं है कि किसी एक देश के इंसान के लिए कोई चीज अच्छी होगी और किसी दूसरे देश के नागरिक के लिए वह चीज बुरी होगी। अगर ऐसा है तो इसका मतलब यह हुआ कि कुछ न कुछ उसमें संस्कृत चीजें घुस गई हैं। उदाहरण के लिए अगर कोई अंधा व्यक्ति है और उसकी उंगली पकड़कर ट्रैफिक रोककर आप सड़क पार करा देते हैं, तो यह अच्छी बात है। यह आप अमेरिका में करेंगे, तब भी अच्छी बात है, भारत में करेंगे तब भी अच्छी बात है, पाकिस्तान में करेंगे तब भी अच्छी बात है। यह आचरण किसी भी देश, किसी भी काल के लिए बुरा नहीं हो सकता है।

एक नजर इधर भीः आप जो सोचते हैं वैसा ही काम करते हैं

और मजे की बात यह है कि चाहे आप खोमचा लगाते हों, चाहे आप अरबपति हों। दोनों स्थितियों में आप ऐसी मदद करना चाहते हैं। आपके अंतरतम में होता है कि उस व्यक्ति को समस्या हो रही है और मैं इसका समाधान कर सकता हूं तो कर दूं। यही सार्वभौमिक अच्छाई है।

धम्मपद के पंडित बग्ग में गौतम बुद्ध कहते हैं….

 

येच खो सम्मदक्खाते धम्मे धम्मानुवत्तिनो।

ते जना पारमेस्सन्ति मच्चुधेय्यं सुदुत्तरं ।।11।।

(ये च खलु सम्यगाख्यते धर्म धर्मानुवर्तिनः।

ते जनाः पारमेष्यन्ति मृत्युधेयं सुदुस्तरम्॥11॥)

जो भली प्रकार उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं, वे ही दुस्तर मृत्यु के राज्य को पार करेंगे।

कण्हं धम्मं विप्पहाय सुक्कं भावेथ पंडितो।

ओका अनोकं आगम्म विवेके यत्थ दूरमं।।12।।

तत्राभिरतिमिच्छेय्य हित्वा कामे अकिञ्चनो।

परियोदपेय्य अत्तानं चित्तक्लेसेहि पंडितो।।13।।

(कृष्णं धर्म विप्रहाय शुक्लं भावयेत् पण्डितः।

ओकात् अनोकं आगम्य विवेके यत्र दूरमम्।।12।।)

तत्राभिरतिमिच्छेत् हित्वा कामान् अकिचनः॥

पर्यवदापयेत् आत्मानं चित्तक्लेशैः पण्डितः॥13।।)

पण्डित बुरी बात को छोड़ अच्छी का अभ्यास करे। घर से बेघर हो एकान्त स्थान में रहे। भोगों को छोड़ अकिंचन हों, वहीं रत रहने की इच्छा करे। पण्डित चित्त के मलों से अपने को शुद्ध करें।

येसं सम्बोधि-अङ्गेसु सम्मा चित्तं सुभावितं।

आदान-पटिनिस्सगे अनुपादाय ये रता।

खीणासवा जुतीमन्तो ते लोके परिनिब्बुता।।14।।

(येषां संबोध्यंपेषु सम्यक् वित्तं सुभावितम्।

आदानप्रतिनिसर्गे अनुपादाय ये रताः।

क्षीणास्रवा ज्योतिष्मन्तस्ते लोके परिनिर्वृताः॥14॥)

जिनका चित्त सम्बोध्यंगों में अच्छी तरह अभ्यस्त हो गया है, जो अनासक्त हो परिग्रह के त्याग में रत, क्षीणाश्रव और द्युतिमान् हैं, वे लोक में निर्वाण पा चुके हैं।

अगर आप सार्वभौमिक, सार्वकालिक अच्छाइयों को पहचान लेते हैं, अपने भीतर उन अच्छाइयों को तलाश लेते हैं. उसके अनुसार आचरण करते हैं, तो कठिन वक्त पार करने में मुश्किल नहीं आती है। यही संबोधि प्राप्त कर लेना जरूरी है। अगर आपका चित्त इस ज्ञान से परिपूर्ण हो गया है तो समझिए कि आपने निर्वाण प्राप्त कर लिया है। यह इसी धरती पर रहकर पाया जा सकता है, कहीं इसके लिए दूर जाने की जरूरत नहीं होती है।

 

 

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