बुद्धिज्म में भगवा के इतिहास और इसके ड्रेस कोड के पीछे एक लंबा त्याग रहा है और अभी भगवा को बेचा जा रहा है : धम्मपद-4

भगवा क्या है? भारत मे भगवा का क्या महत्त्व रहा है? इस ड्रेस कोड को लेकर भारत मे स्वाभाविक रूप से श्रद्धा क्यों उपजती है?  भगवा के पीछे त्याग, परोपकार, दया करुणा, सद्भाव का लंबा इतिहास बता रहे हैं सत्येन्द्र पीएस…..

हर साल कांवड़ियों की हुड़दंगई को लेकर चर्चा होती है। परंपरागत रूप से इस साल भी हो रही है। कांवड़िए कहीं किसी मुसलमान को पीट दिए, उसकी कार तोड़ दिए तो वह भयानक रूप से चर्चा का विषय हो जाता है।
मैंने मोहर्रम और कांवड़ दो त्योहार विचित्र देखे हैं। मेरे गांव में हिन्दू लोग मनौती मानते थे ताजिया बैठाने की। वह बाकायदा ताजिया बैठाते थे। मुझे नहीं पता कि उनकी और मुस्लिम की ताजिया पूजा पद्धति क्या है, लेकिन यह देखा है कि हिन्दू ताजिया बैठाते थे। कांवड़ में भी तमाम मुसलमान बड़ी आस्था से यात्रा पर निकलते थे। काशी विश्वनाथ मंदिर में 20 साल पहले बोर्ड लगा था कि सनातन धर्म में आस्था न रखने वाले मन्दिर में प्रवेश न करें। शायद वहां भी मुस्लिम कांवड़िए जल चढ़ाते ही होंगे क्योंकि वहां मुस्लिम या जाति के आधार पर कुछ नहीं लिखा है बल्कि सनातन में आस्था न रखने वाले की बात की गई है और अगर कोई मुस्लिम कांवड़ लेकर निकल रहा है तो स्वाभाविक रूप से सनातन में उसकी आस्था है!
जहां तक कांवड़ यात्रा में कांवड़ियों द्वारा मारपीट, हुल्लड़ करने का प्रश्न है, वह हमारे समाज का पार्ट है। लोगों के भीतर तमाम कुंठाए होती हैं। पुलिस को लेकर गुस्सा होता है। युवा जब झुंड में होते हैं तो मौका पाते ही पुलिस की गाड़ी तोड़ने लगते हैं। ये वही युवा होते हैं जिनके लिए सिपाही साहब होते हैं, पूरा गांव एक सब इंस्पेक्टर के आतंक से कांप जाता है। और जैसे ही वह मौका पाते हैं, उनकी गाड़ियों पर डंडे मारने लगते हैं।
मुस्लिम समाज के प्रति हाल के 10 वर्षों में बढ़ी घृणा के बारे में विस्तार से कहने की जरूरत नहीं है। ऐसे में कांवड़ बालक जैसे ही दाढ़ी टोपी देखते हैं, उनका जोश जाग जाता है।
इसके अलावा कार वाले भी इनके दुश्मन होते हैं क्योंकि कार भी उनके लिए सपना होता है। जैसे ही आपने हॉर्न बजाया और गलती से उनके कांवड़ में कार छुआई, समझिए कि आपकी कार को पीट डालेंगे, चाहे जितने बड़े हिन्दू आप हों। अगर त्रिपुंड वगैरा लगाए हों तो भले ही बच जाएं।
ऐसे में कांवड़ियों से बचना आप अपनी जिम्मेदारी मानें। उन्हें सहानुभूति और प्रेम से देखें कि सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर पानी लेकर आ रहे हैं और आपने धक्का मारकर उनका पानी ही गिरा दिया तो उन पर क्या गुजरेगी? उनका पूरा श्रम व्यर्थ गया लगने लगता है उन्हें।
इस समय एक विचित्र स्थिति और है। कांवड़ यात्राएं राजनीतिक बन चुकी हैं। कांवड़ियों को वोट बैंक के रूप में देखा जा रहा है। पहले एक पार्टी ने हिन्दू धार्मिकों को अपना बंधुआ समझा तो अन्य पार्टियां भी उन्हें फ्री का मजदूर बनाने में लग गईं। इसमें भी कांवड़ियों का नहीं, सम्पूर्ण समाज का दोष है।
कबीर ने इस धार्मिकता पर बड़ा जोरदार लिखा है…
मन ना रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।
आसन मारि मंदिर में बैठै
ब्रह्म-छाँड़ि पूजन लागे पथरा।
कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले
दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।
जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले
काम जराय जोगी होय गैले हिजरा।
मथवा मुँड़ाय जोगी कपड़ा रँगौले
गीता बाँच के होय गैले लबरा।
अब समस्या यह है कि ऐसे ही लबार यानी जोकर सरकार चला रहे हैं। कपड़े को लेकर लोगों की बड़ी जबरदस्त आस्था रही है। शायद यह सबसे पहले बुद्धिस्टों ने शुरू किया था। बुद्धिस्ट भंते लोगों का एक ड्रेस कोड होता था। वह चीवर और गेरुआ वस्त्र पहनते थे। कभी धन, सत्ता के लोभ में नहीं पड़ते थे। लोभ में क्या पड़ना, जो बड़े बड़े बुद्धिस्ट हुए, वह राजपाठ छोड़कर आए थे। गौतम बुद्ध हों, अशोक हों, नागार्जुन हों, बंगाल के और कश्मीर के आतिश दीपंकर हों, सभी बड़े प्रतापी राजा थे और वह छोड़कर आए थे और गेरुआ पहनकर जीवन यापन करने लगे थे। उनके प्रति जनता में जो श्रद्धा उपजी, वह बहुत तगड़ी थी और कमोबेश अभी भी वह श्रद्धा बनी हुई है।
अभी मामला उल्टा है। जिनके खाने का ठिकाना नहीं था, पढ़ लिख नहीं पाए, घर के दायित्वों को छोड़कर भाग गए उन्होंने खुद को फकीर घोषित कर दिया, भगवा पहनकर मठ मन्दिर बनाया। और सत्ता शासन पर कब्जा कर लिया। पब्लिक ने उनको फकीर, त्यागी, भगवाधारी समझकर चुन लिया। अब वह जिंदगी की हर अय्याशियां कर रहे हैं।
ऐसे में अगर फर्जी भोले पैदा हो रहे हैं तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। वह सड़क पर दंगे करेंगे। शिव भक्त बनकर सावन में शराब की दुकान पर लाइन लगाएंगे। उनकी आस्था भी मौजूदा फकीर और भगवाधारी शासकों की तरह है कि किसी तरह सत्ता हथिया लें और जितनी भी चीजों से वंचित हैं, वह सब मौज हमें मिल जाए!
बचना और बचाना तो खुद आपको है! बुद्ध ने कहा है कि इस संसार में बैर से बैर शांत नहीं होते, मैत्री से ही बैर शांत हो सकता है, यही सनातन धर्म है। अब यह आप पर निर्भर है कि मैत्री कैसे करें, खुद को और अपने परिवार को इन फर्जी लोगों से कैसे बचाएं। आपको कवायद करनी है कि अपने बाल बच्चों को इन फर्जी और झोला उठाकर चल देने का दावा करने वाले फकीरों और सत्ता के लिए भगवा धारण करने वाले संतों से अपने को और अपने बाल बच्चों को कैसे बचाना है?
आप खुद ही अपनी आंख बंद करके सोचें कि अगर कोई व्यक्ति गेरुआ वस्त्र पहने हो, या कोई व्यक्ति फकीर हो तो आपके मन में क्या धारणा आती है? मेरे मन मे तो यही भाव आता है कि यह व्यक्ति राग द्वेष से मुक्त है। राज पाठ इसके लिए कुछ नहीं है। यह व्यक्ति चोरी नहीं करेगा। यह जातिवाद नहीं करेगा। यह व्यक्ति दंगे नहीं करेगा। यहव्यक्ति ध्यानी होगा, योग करता होगा, समाज के हित मे सोचता होगा। समाज के कल्याण के लिए ऊन रहस्यों को जानने की कवायद करता होगा कि हम क्यों जन्मते हैं, क्यों मर जाते हैं। मुसीबत में क्यों फंसते हैं, दुःखी क्यों रहते हैं।
लेकिन इस समय भगवा के अपमानित होने की वजह यह है कि त्याग के वस्त्र को भोग का वस्त्र बना दिया गया। पहले लोग सत्ता छोड़कर भगवा पहनते थे, अब सत्ता पाने के।लिए भगवा पहनते हैं। बहुत तुच्छ चीजों के लिए टुच्चे टाइप लोगों ने भगवा पहन लिया है!

गौतम बुद्ध से उनके भाई देवदत्त ने सवाल पूछा, जब वह श्रावस्ती के वन में थे। पूछा कि यह भगवा धारण का क्या मतलब है? तब बुद्ध कहते हैं….
अनिक्कसावो कासावं यो वत्थं परिदहेस्सति।
अपेतो दमसच्चेन न सो कासावमरति॥6॥
(अनिष्कषायः काषायं यो वस्त्रं परिधास्यति।
अपेतो दमसत्याभ्यां न स काषायमर्हति।।9।।)
जो बिना चित्तमलों को हटाये काषाय वस्त्र धारण करता है, वह संयम और सत्य से हीन काषाय वस्त्र का अधिकारी नहीं है।
यो च वन्तकसावस्स सीलेसु सुसमाहितो।
उपेतो दमसच्चेन स वे कासावमरहति॥10॥
(यश्च वान्तकषायः स्यात् शीलेषु सुसमाहितः।
उपेतो दम-सत्याभ्यां स वै काषायमर्हति॥10॥)
जिसने चित्तलों का त्याग कर दिया है, शील पर प्रतिष्ठित है, संयम और सत्य से युक्त है, वही काषाय वस्त्र का अधिकारी है।

एक चीज तो साफ है कि भारतीयों को ड्रेस सेंस बहुत पुराने वक्त से रहा है। इस का पहले से ही कुछ न कुछ मतलब माना जाता रहा है। और यह भी साफ है कि अभी भी जैसे वर्दीधारी गुंडे और लुटेरे होते हैं, 2500 साल पहले भी हुआ करते थे। तभी तो बुद्ध ने बताया कि कषाय वस्त्र पहनने का अधिकारी कौन नहीं है!
मतलब दोनों नहीं चलेगा कि आप फकीर भी हों और सत्ता के लालच में दंगे भी करते रहें।
अभी समस्या इसलिए बढ़ी है कि भगवाधारी अब सत्ता धारी और व्यापारी हो गए हैं, जो बचपन मे लुच्चे लफंगे थे। उनसे सीख लेकर बच्चे भगवा पहन रहे हैं। पहले लोग सत्ता छोड़कर भगवाधारी बनते थे।
तो यह आपका दायित्व है कि भगवा की जो वैश्विक छवि बनी हुई है कि अगर कहीं दुनिया में कोई मोंक भगवा पहने चला जाए तो उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, वह बनाए रखें। भगवा का ब्रांड बुद्ध ने त्याग से बनाया। अपना शासन छोड़ दीजिए, करोड़ों का कारोबार छोड़ दीजिए, महल छोड़ दीजिए। तब भगवा पहनकर जंगल जंगल घूमिये। भगवा को यह ब्रांड न बनने दें कि फर्जी कोरोनिल बेचकर 2000 करोड़ की कम्पनी खड़ी करनी है! भगवा पहनकर सांसद बनना है। भगवा पहनकर शासन पर कब्जा करना है। अगर यह सब करेंगे तब तो अमेरिका, फ्रांस, रूस जैसे देशों के शासक, उद्यमी आपके भगवा को हवा में उड़ा देंगे क्योंकि वह कोट पैंट टाई पहनकर यह सब पहले से ही कर रहे हैं।
बुद्ध का ब्रांड भगवा जिंदा रहने दें तभी कोई स्टीव जॉब्स या कोई गूगल एपल खड़ा करने वाला या कहीं का राष्ट्राध्यक्ष शांति, सद्भाव, प्रेम, सुख की तलाश में भगवा पहनेगा।
#भवतु_सब्ब_मंगलम

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