जिस आपातकाल को इंदिरा गांधी सही न ठहरा सकीं उसे कुछ नवधे कांग्रेसी व कम्युनिस्ट झूठ के दम पर सही ठहराने में जुटे हैं

कुछ कांग्रेसी और नव कम्युनिस्ट आपातकाल को सही ठहरा रहे हैं। जय प्रकाश नारायण को अमेरिकी खुफिया एजेंसी का एजेंट बता रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार और समाजवादी विचारक जयशंकर गुप्त कहते हैं कि आपातकाल को इंदिरा गांधी कभी सही न ठहरा सकीं, उसे नवधे विचारक झूठ के पुलिंदों से स्थापित करने में लगे हैं।

जिसे इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी के बड़े बड़े नेता भी जायज नहीं ठहरा सके, उस आपातकाल को हमारे कुछ मित्र आज पांच दशक बाद ‘आपातकाल का सच’ के नाम पर X (ट्विटर) पर चर्चा (स्पेस टॉक) में जायज ठहराकर न जाने क्या हासिल करना चाहते हैं! हम इस चर्चा और इसको लेकर चल पड़ी बहस में शामिल नहीं होना चाहते थे। लेकिन इस चर्चा के क्रम में कुछ पूर्वाग्रही सोच और अधूरे एवं मनगढ़ंत तथ्यों पर आधारित ‘विद्वता’ से लैस विचारवंत मित्रों ने कुछ ऐसी बातें कही हैं और उसी को आधार बनाकर सोशल मीडिया के मंचों पर जिस तरह की बातें कही जा रही हैं, उन्हें देखते हुए चुप रहना मुश्किल है। इस परिचर्चा में कहा गया कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सी आई ए ने इंदिरा गांधी के खिलाफ षडयंत्र किया था। जे पी आंदोलन और अन्ना आंदोलन दोनों को आपस में जोड़कर कहा गया कि दोनों एक ही जैसे थे (देश के स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से एक जेपी की अन्ना हजारे से तुलना कोई अशिक्षित गंवार ही कर सकता है)। एक विद्वान पत्रकार ने कहा कि दुनिया के सबसे बड़े गद्दार जे पी और लोहिया थे। इमरजेंसी नहीं लगाई गई होती तो देश टूट गया होता। लोहिया-जेपी आर एस एस के हाथ में खेल रहे थे। रेलवे हड़ताल को लेकर अनर्गल प्रलाप के साथ ही कहा गया कि जे पी, मोरारजी भाई, अटल बिहारी और जॉर्ज फर्नांडिस होटल में जाकर सी आई ए के एजेंट से मिला करते थे। आपातकाल के पक्ष में और समर्थन में इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हां को आर एस एस और सी आई ए का एजेंट बताया गया। यह भी कि इंदिरा गांधी की इमरजेंसी तानाशाही नहीं थी। किसी ने यह भी कहा कि जे पी आंदोलन, बोफोर्स कांड, निर्भया कांड का विरोध कांग्रेस की सरकार को अस्थिर करने के लिए हुआ था। एक वक्ता ने यह भी कहा कि अगर इमरजेंसी नहीं लगती तो शेख मुजीबुर रहमान की तरह इंदिरा गांधी की भी हत्या हो जाती।
आपातकाल के पक्ष और विपक्ष में अलग-अलग राय हो सकती है। लेकिन लोहिया और जेपी को सीआइए का एजेंट तो कभी नेहरु और इंदिरा गांधी ने भी नहीं कहा था। अगर वे सीआइए के एजेंट थे, जेपी, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी और जार्ज फर्नांडिस किसी होटल में सीआइए के एजेंट से मिलते थे और इसकी पुख्ता जानकारी उस समय की सत्ता और आज के उसके खैरख्वाहों को थी या है तो उनके खिलाफ तब या बाद की कांग्रेस सरकारों ने भी कोई कार्रवाई क्यों नहीं की! यह एक बेहद सतही विश्लेषण है कि लोहिया और जेपी ने आरएसएस और जनसंघ-भाजपा को फलने-फूलने में योगदान किया। दरअसल, कांग्रेस और इसके कुछ नेताओं, नये-पुराने समर्थकों और कुछ कम्यनिस्टों के अंदर एक ग्रंथि घर कर बैठी है कि कांग्रेस की दुर्दशा और भाजपा के सत्ता शिखर तक पहुंचने का कारण समाजवादी-डा. लोहिया, जयप्रकाश नारायण और उनके साथी-समर्थक ही रहे हैं। और आज भी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ही कांग्रेस की दुर्दशा और इसके अपने शानदार अतीत को प्राप्त नहीं कर पाने के लिए सबसे बड़े कारण हैं। इनकी सुनें और मानें तो कांग्रेस को चलाने और मजबूत रखने की जिम्मेदारी कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व के बजाय देश को आजादी मिलने के समय गांधी जी की अनिच्छा के बावजूद कांग्रेस से बाहर हो गए या बाहर कर दिए गये आचार्य नरेंद्रदेव, डा. राममनोहर लोहिया-जयप्रकाश नारायण और अन्य वरिष्ठ समाजवादी नेताओं की थी। कांग्रेस से समाजवादियों के अलग होते समय लोहिया ने जेपी एवं अन्य साथियों से पुनर्विचार का अनुरोध करते हुए कहा था कि एक बार बाहर होने के बाद वापसी संभव नहीं होगी। यकीनन, आजादी मिलने तक कांग्रेस में गांधी के बाद जवाहर लाल नेहरू ही समाजवादी नेताओं के प्रिय और आदर्श थे। लेकिन नेहरू जी ने अपने प्रिय आदर्शवादी सोशलिस्टों को कांग्रेस में रोकने के लिए कोई ठोस और सकारात्मक पहल नहीं की थी, यह भी एक सच है। सत्ता मोह में वह कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेताओं के दबाव में आ गए थे।
कांग्रेस से बाहर होने के बाद राजनीति में नैतिकता के सर्वोच्च मानदंड पेश करते हुए आचार्य नरेंद्रदेव सहित 11 समाजवादियों ने विधानसभा की सदस्यता छोड़ दी थी क्योंकि वे कांग्रेस के टिकट पर चुनकर आए थे। आचार्य नरेंद्रदेव के त्यागपत्र के कारण हुए फैजाबाद के उपचुनाव में उन्हें हराने और अपने उम्मीदवार बाबा राघवदास को जिताने के लिए कांग्रेस ने किस तरह का घिनौना सांप्रदायिक कार्ड खेला था! यह इतिहास का विषय है। आचार्य जी को बौद्ध, नास्तिक और भगवान राम का विरोधी तक प्रचारित किया गया था। वह कम मतों से चुनाव हार गए थे लेकिन उसी के साथ राजनीति में सांप्रदायिकता का खेल भी शुरू हो गया था। आज कुछ लोग यह समझाने में लगे हैं कि पंडित नेहरु को बाबा राघवदास की उम्मीदवारी पसंद नहीं थी। वह तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत, पुरुषोत्तम दास टंडन और मदन मोहन मालवीय की पसंद के उम्मीदवार थे, इसीलिए नेहरू जी आचार्य नरेंद्रदेव के खिलाफ चुनाव प्रचार में गए भी नहीं। लेकिन राघवदास थे तो कांग्रेस के ही उम्मीदवार ! हिंदू महासभा के तो नहीं! जब फैजाबाद में कांग्रेस का चुनाव अभियान सांप्रदायिकता और अंध आस्था के चरम पर था, इसके विरुद्ध नेहरू जी का कोई बयान आया था क्या! उसके कुछ ही समय बाद ही अयोध्या में रात के अंधेरे में बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दी गई थीं। तब भी केंद्र और राज्य में भी कांग्रेस की ही सरकारें थीं।
बाद के वर्षों में कांग्रेस और समाजवादी अलग-अलग धाराओं की राजनीति करते हुए एक दूसरे को कमजोर करने में लगे रहे। सत्तारूढ़ रहते कांग्रेस ने समय-समय पर समाजवादी नेताओं को तोड़कर, उन्हें कांग्रेस में शामिल कर समाजवादी आंदोलन को कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जवाब में डा. लोहिया से आप क्या अपेक्षा करते! उन्होंने भी उस समय वही किया जो तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर आवश्यक लगा। उन्होंने तमाम तरह की सत्ताजनित बुराइयों से घिरती जा रही कांग्रेस को सत्ताच्युत या कमजोर करने के लिए गैर कांग्रेसवाद की तात्कालिक और अल्पकालिक रणनीति बनाई थी जिसमें तकरीबन सभी गैर कांग्रेसी दलों को साथ लाने और कांग्रेस विरोधी मतों का विभाजन रोकने के लिए मोर्चा बनाने की बात थी। इसके तहत साठ के दशक में बनी संविद सरकारों में जनसंघ, सोशलिस्ट, कांग्रेस से निकले लोगों के साथ ही कम्युनिस्ट भी शामिल हुए। यह अलग बात है कि वह प्रयोग एक तो अपने अंतर्विरोधों की भेंट चढ़ गया और फिर उसके अपनी परिणति को प्राप्त होने से पहले ही डा. लोहिया का निधन हो गया। बाद के वर्षों में उनके राजनीतिक सपने बिखरते से गये। समाजवादी गैर कांग्रेसवाद के आधार पर बनी सरकारों में अपने सिद्धांतों और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन पर दबाव बनाकर अपने संगठन को वैचारिक आधार देकर मजबूत करने में विफल रहे। उनमें से बहुतेरों का राजनीतिक मकसद सत्ता में सहकार और उससे लाभान्वित होने तक सीमित होते रहा।
समाजवादी या कहें राजनीति से ही संन्यास लेकर सर्वोदय और भूदान आंदोलन से जुड़ गये जेपी ने जब सत्तर के दशक में भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद के चरम पर पहुंचने और लोकतांत्रिक संस्थाओं का तेजी से क्षरण होते देखा और गुजरात तथा बिहार के छात्र युवाओं में सड़ी-गली व्यवस्था के विरुद्ध बेचैनी और अकुलाहट देखी तो वह चुप बैठे नहीं रह सके। उन्होंने छात्र-युवाओं के आंदोलन को नेतृत्व देना शुरू किया। उन्होंने तो कम्युनिस्ट पार्टियों से भी आंदोलन में शिरकत का आह्वान किया था ताकि संघ-जनसंघ को संतुलित किया जा सके लेकिन भाकपा के लोग उस समय इंदिरा गांधी की कांग्रेस के साथ चिपके रहे जबकि आपातकाल से पहले और बाद में भी माकपा के लोग किसी न किसी रूप में कांग्रेस के विरोध में और आंदोलन के साथ रहे। इसी क्रम में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हां की अदालत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया (एक्स पर इस चर्चा में एक कथित विद्वान पत्रकार ने तो यह भी कहा कि श्री सिन्हां भी सीआइए के एजेंट थे)। इस फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट ने श्रीमती गांधी को अधूरा स्थगनादेश जारी किया था लेकिन श्रीमती गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार करने और लोकतांत्रिक विकल्प को चुनने के बजाय देश को आपातकाल के हवाले कर दिया था। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले का इंतजार तत्कालीन विपक्ष ने भी नहीं किया था।
यह निर्विवाद है कि आपातकाल देश के संसदीय लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला धब्बा था जब राजनीतिक विरोधियों को चुन चुनकर गिरफ्तार कर जेलों के हवाले किया गया। प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताला जड़ दिया गया था। प्रतिबद्ध नौकरशाही, प्रतिबद्ध न्यायपालिका की बात उसी समय से शुरू हुई थी। उसे अब जस्टिफाई नहीं किया जा सकता। आपातकाल में राजनीतिक विरोधियों का उत्पीड़न, संघ-जनसंघ के नेताओं के सत्ता के सामने समर्पण और उनके माफीनामे इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। यकीनन, आपातकाल के शुरुआती दौर में कुछ अच्छे काम भी हुए थे और यह भी एक सच है कि हारने की कीमत पर भी लोकसभा का चुनाव करवाकर आपातकाल को हटाया भी इंदिरा गांधी ने ही था। आपातकाल से पहले भी बैंकों का राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति जैसे कुछ अच्छे काम भी श्रीमती गांधी के राजनीतिक खाते में डाले जा सकते हैं। लेकिन उनके इस पक्ष को सामने लाने के बजाय जस्टिस सिन्हां पर निम्नस्तरीय आरोप लगाना, श्रीमती गांधी की एकाधिकारवादी राजनीति और आपातकाल को जस्टिफाई करना सर्वथा गलत और तथ्यों को नकारना है। अगर आपातकाल को लागू करने के फैसले के पीछे रामलीला मैदान में जेपी का अपने भाषण में कथित तौर पर सेना और सुरक्षा बलों के जवानों को अदालत से असंवैधानिक घोषित की जा चुकी श्रीमती गांधी के असंवैधानिक आदेशों को नहीं मानने का आह्वान ही था, जिसे कई लोग बगावत करने का आह्वान भी मानते हैं, तो उस सभा के शुरू होने से पहले ही गिरफ्तार किए जाने वाले नेताओं की सूची तैयार क्यों कर ली गई थी। और फिर सिद्धार्थ शंकर रे ने जनवरी 1975 के पहले सप्ताह में ही श्रीमती गांधी को आपातकाल लागू करने का सुझाव क्यों दिया था। लंबा इतिहास है। लेकिन वर्तमान उससे भी भयावह है। हम आज अघोषित आपातकाल या ‘लोकतांत्रिक आपातकाल’ में जी रहे हैं जिसमें चुनाव तो होते हैं लेकिन सरकार और सरकार बिना आपातकाल लागू हुए भी विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता को भी अपने ढंग से नियंत्रित करने में लगी है। अतीत के जख्मों को कुरेदने से बेहतर चर्चा तबके आपातकाल और आज के अघोषित आपातकाल की तुलना के साथ भी की जा सकती थी।
सवाल यह है कि संघ परिवार, जनसंघ और भाजपा को बढ़ने से रोकने के लिए कांग्रेस ने क्या किया! सच तो यह है कि कांग्रेस ने कभी भी आरएसएस के खिलाफ ठोस, वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष नहीं किया। उसके विरुद्ध कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों के द्वारा यदा कदा उसे प्रतिबंधित करने जैसी प्रशासनिक कार्रवाइयां जरूर की गईं। लेकिन उससे संघ परिवार कमजोर होने के बजाए मजबूत ही होते गया। 26 जनवरी, 1963 को पंडित नेहरु के प्रधानमंत्री और यशवंत राव चह्वाण के रक्षामंत्री रहते नई दिल्ली में राजपथ पर गणतंत्र दिवस की परेड में आरएसएस के दस्ते को शामिल कर संघ को एक तरह की विश्वसनीयता ही प्रदान की गई थी। क्यों, यह समझ से परे है। संघ के लोग आज भी इसका जिक्र फख्र के साथ करते हुए दावा करते हैं कि श्री नेहरु ने इसके लिए उनका आह्वान किया था।
कांग्रेस को अपनी बदहाली के कारण अपने गिरेबान में ही खोजने होंगे। जब तक कांग्रेस के लोगों, समर्थकों और शुभचिंतकों के दिल दिमाग से लोहिया, जेपी और अन्य समाजवादियों के प्रति नफरत और विरोध की गहरे जम गई यह ग्रंथि बाहर नहीं निकलेगी कि कांग्रेस की दुर्दशा और जनसंघ, भाजपा के उत्थान के लिए केवल वही जिम्मेदार हैं, कांग्रेस कभी भी मजबूत और सफल नहीं हो सकेगी। यह तो संघ-जनसंघ और भाजपा के विस्तार और सत्ता शिखर पर पहुंचने के लिए समाजवादी नेताओं को कोसते रहने में अपनी ऊर्जा जाया करनेवाले लोगों को भी पता होगा कि कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने भारतीय राजनीति में वंशवाद की नींव क्यों रखी होगी (हालांकि यह राजनीतिक बुराई कुछेक अपवादों को छोड़ कर आज समाजवादी नामधारी पार्टियों से लेकर भाजपा तथा अन्य दलों में भी गहरे तक घर कर गई है) ! नेहरु जी एक तरफ तो अपने उत्तराधिकारी के रूप में जेपी और मेनन के नाम उछालते थे लेकिन कांग्रेस का अध्यक्ष उन्होंने अपनी बेटी को ही बनवाया था। यहीं से कांग्रेस में परिवारवाद शुरू हुआ! यही नहीं, कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व (इंदिरा गांधी) ने शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलनों को कुचलने से लेकर आपातकाल के जरिए लोकतंत्र का गला घोंटने जैसी कोशिश भी जेपी या अन्य समाजवादी नेताओं से पूछकर तो नहीं ही की होगी। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने पर पानी पी पीकर उसका विरोध और संघ और भाजपा के कट्टरपंथी हिंदुत्व के जवाब में नरम हिंदुत्व का अनुसरण भी कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने समाजवादियों से पूछकर तो नहीं ही किया होगा। तथाकथित राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुलवाने और मंदिर के शिलान्यास से लेकर शाहबानो प्रकरण में कांग्रेस के तत्कालीन सत्तारूढ नेतृत्व के रुख और फैसलों ने भी सांप्रदायिक ताकतों के राजनीतिक उभार में सहयोगी भूमिका निभाई। क्या यह सही नहीं है कि कांग्रेस ने 1990 में वी पी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार को गिराने के लिए भाजपा का साथ दिया था!
सच तो यह है कि कांग्रेस का अपने नीति-सिद्धांतों से भटकाव और अधोपतन बहुत पहले से ही शुरू हो गया था। समाजवादी साथ नहीं भी होते तो भी संघ-जनसंघ, भाजपा के लोग देर सबेर आज की स्थिति में पहुंच ही जाते क्योंकि उनके पास देश की एकता-अखंडता और समरसता को तार-तार करनेवाला ही सही, एक सांप्रदायिक मिशन था जिसे हासिल करने के लिए वे लगातार सक्रिय थे। इस क्रम में वे वक्त और आवश्यकता के अनुसार झुकते और समझौते भी करते रहे। दूसरी तरफ, आजादी के बाद से ही कांग्रेस नेतृत्व के पास सत्ता में बने रहने के अलावा कोई ठोस राजनीतिक मिशन नहीं रह गया था। सही मायने में संघ और इसके कुत्सित मिशन और इरादों से प्रशासनिक और वैचारिक तौर पर लड़ने की जिम्मेदारी मूल रूप से कांग्रेस नेतृत्व पर थी लेकिन सत्ता मद में और सत्ता के स्थायीतौर पर साथ रहने के गुरुर में उसने इस चुनौती को कभी गंभीरता से नहीं लिया।
यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि लोहिया और जेपी का दौर तो साठ-सत्तर के दशक तक ही था। उसके बाद इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पी वी नरसिंह राव और डा. मनमोहन सिंह की लंबे कार्यकाल की सरकारें रहीं। और फिर इन सरकारों के रहते कांग्रेस के लोगों ने भाजपा और संघ परिवार के खिलाफ कौन सा राजनीतिक वैचारिक संघर्ष किया। संसद में मंडल आयोग पर बहस के दौरान किन तत्वों के दबाव में राजीव गांधी ने ओबीसी आरक्षण का पुरजोर विरोध किया था। बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात में सांप्रदायिक दंगों के समय कांग्रेस के लोगों की भूमिका क्या थी कितने लोग सड़कों पर निकल कर आए थे। सच तो यह है कि आज की कांग्रेस में भी राहुल गांधी के जातिगत जनगणना, धर्मनिरपेक्षता से संबंधित स्पष्ट विचारों के विरोधी किन्हीं कारणवश भारी संख्या में भरे पड़े हैं जिन्हें संघ परिवार के स्लीपर सेल भी कहा जाता है। दुर्योग से कांग्रेस और राहुल गांधी के इर्द गिर्द इसी मंडली का प्रभाव है। यूपी जैसे राज्य से जहां विधानसभा में कांग्रेस के सिर्फ दो विधायक हैं, तीन लोगों को राज्यसभा में भेजा गया। इनमें से दो एक ही जाति के हैं। एक समय तो ऐसा भी था जब यूपी में अध्यक्ष, विधायक दल के नेता से लेकर सभी आमुख (फ्रंटल) संगठनों के मुखिया, यूपी से एआइसीसी में पदाधिकारी, केंद्र सरकार में मंत्री इसी एक जाति के थे। यही नहीं, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार में भी इसी जाति के अध्यक्ष थे (इनमें से यूपी, मध्य प्रदेश, हरियाणा और बिहार के उस समय के अध्यक्ष भाजपा में जा चुके हैं)। और यह तब था जबकि इस जाति के मतदाता भाजपा का ठोस जनाधार बन चुके हैं। आज भी यूपी के अध्यक्ष और प्रभारी एक ही जाति-वर्ग से हैं। इन लोगों की अब पूरी कोशिश कुछ पलटीमारों के भरोसे बिहार और यूपी में भी दिल्ली की तरह कांग्रेस को अकेले दम पर चुनाव मैदान में उतरवाने की हो सकती है। यूपी में 2022 के विधानसभा चुनाव में इनकी एकला चलो रणनीति का खामियाजा कांग्रेस दो सदस्यीय विधायक दल तक सिमट जाने के रूप में भुगत चुकी है।
कांग्रेस के हमारे विचारवंत मित्रों को इस पर भी विचार करना चाहिए कि अगर कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, एच डी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल को समर्थन देकर उनकी सरकारें बनवाने के बाद बहुत ही मामूली आधारों पर समर्थन वापस लेकर उनकी सरकारें नहीं गिरवाई होतीं तो देश का राजनीतिक परिदृश्य आज क्या होता! इससे संघ परिवार और भाजपा के विस्तार में कितनी मदद मिली! कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो समाजवादी नेताओं ने संघ के सांप्रदायिक और फासीवादी एजेंडे के खुलकर सामने आते जाने के साथ ही उनके इरादों को समझकर उनके विरोध में सक्रिय होना शुरू कर दिया था। 1978-79 में समाजवादी ही थे जिन्होंने दोहरी सदस्यता को लेकर संघ और जनसंघ के विरुद्ध अभियान शुरू किया था। आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में संघ और भाजपा के विरुद्ध जमीन पर और वैचारिक धरातल पर भी हम जैसे समाजवादी आंदोलन से निकले लोग अपनी क्षमता और सामर्थ्य के अनुरूप संघर्षरत हैं। तब भी कुछ समाजवादी कांग्रेस की सत्ता राजनीति के साथ हो लिए थे, अब भी कुछ लोग भाजपा की सत्ता के साथ गलबहियां करते नजर आते हैं। इसमें कुछ भी नया नहीं है। कांग्रेस के बहुत सारे लोग भी, जिन्हें कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी जाति और चेहरे को देखकर ही संगठन और सरकारों में भी महत्व दिया, आगे बढ़ाया, आज भाजपा के पाले में बैठे नजर आते हैं।
यह सच है कि हमारे सामने इस समय राष्ट्रीय स्तर पर वैचारिक आधार से लैस ठोस और मजबूत संगठनवाला समाजवादी विकल्प नहीं हैं और हमारा स्पष्ट मानना है कि मौजूदा परिस्थितियों में सही समाजवादी एवं प्रगतिशील वाम धारा के लोगों को संघ परिवार के सांप्रदायिक, मनुवादी और फासिस्ट एजेंडे के विरुद्ध संघर्ष में सामाजिक न्याय, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलने की बात कर रहे राहुल गांधी और कांग्रेस का साथ देना चाहिए। देश के सबसे बड़े विरोधी दल कांग्रेस और इसके नेतृत्व से भी उम्मीद की जाती है कि संकट के इस समय में वह अतीत के दुखद प्रसंगों और विवादों को परे रखकर अतीत के घावों को कुरेदने के बजाय मौजूदा जमीनी राजनीतिक सच को स्वीकार करते हुए संघ और भाजपा के कुत्सित इरादों के विरोध में तमाम गैर भाजपा, गैर आरएसएस दलों, संगठनों, नेताओं-कार्यकर्ताओं और बौद्धिकों को लामबंद करे। इसके लिए पहले तो खुद भी लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के लिए वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध कांग्रेस का संगठन खड़ा करना पड़ेगा और फिर अपने गौरवशाली अतीत के अहंकारी खोल से बाहर निकल कर मौजूदा समय की राजनीतिक हकीकत को स्वीकार करते हुए भाजपा-आरएसएस विरोधी राजनीतिक ताकतों, दलों, संगठनों और व्यक्तियों को भी साथ लेकर विपक्ष की मजबूत और एकजुट चुनौती पेश करने की रणनीति पर काम करना होगा। अतीत के घावों को कुरेदने, तथ्यहीन, मनगढ़ंत आरोपों से समाजवादी पुरखों को लांछित करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। अगर कांग्रेस और गैर भाजपा, गैर आरएसएस दल, संगठन और लोग भी अपने इस ऐतिहासिक दायित्व को पूरा करने में आज विफल होते हैं तो समय उनका इंतजार नहीं करेगा। और आनेवाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी।

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