पंकज चतुर्वेदी
खुनवा पसीना सहरिया में भइया, कौड़ी के भाव बिकाइल बा।
चल उड़ि चल सुगना गउवाँ के ओर, जहाँ माटी में सोना हेराइल बा।।’
ये हाल ही में जारी हुई, अनुभव सिन्हा निर्मित एवं निर्देशित और अनुभव सिन्हा, सौम्या तिवारी एवं सोनाली जैन के द्वारा लिखित फ़िल्म ‘भीड़’ के शीर्षक गीत की पंक्तियाँ हैं, जिसके रचनाकार हैं डॉ. सागर। यों तो फ़िल्म कोरोना महामारी के कारण देश में घोषित किए गए पहले लॉकडाउन के नतीजे में शहरों से गाँवों की ओर लौटने को मजबूर विशाल भारतीय समाज की तबाही का मार्मिक दृश्यालेख है; मगर इसी बहाने भूमंडलीकरण ने बीते तीन दशकों में भारत में जो घोर आर्थिक विषमता पैदा की, उसका यह बहुत जीवन्त और विचलित कर देने वाला चित्रण है।
विषमता हरेक स्तर पर है और उसे अन्याय के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। जाति, सम्प्रदाय और जेंडर के चलते भयावह असुरक्षा, अपमान और दमन है। असंख्य गाँवों में एक विशाल आबादी के पास या तो कृषि-योग्य भूमि नहीं है और थोड़ी-बहुत है भी, तो उसमें घाटा है, जीविका का कोई और साधन नहीं; इसलिए वह विस्थापित होकर महानगरों में आई, जहाँ उसे ‘चीप नौकर’ बनाकर हमने रखा है। न घर दिए, न मुनासिब रोज़गार, न शिक्षा, न चिकित्सा, न आत्म-सम्मान और न ही प्यार!
यह कैसा भारत हमने बनाया है, जहाँ मॉल्स, मल्टीप्लेक्सेस, मेट्रो, सिक्स लेन हाईवेज़, कॉर्पोरेट आउटलेट्स वग़ैरह से निर्मित न्यू इंडिया में इंडिया की ही वृहत्तर आबादी के लिए कोई समाई नहीं है, सिवा इसके कि वह इस भव्य तामझाम को टिकाए रखने के लिए बेहद सस्ता और लाचार मानव श्रम बनकर रह गई है।
समकालीन यथार्थ के इन सारे पहलुओं को यह फ़िल्म बहुत चुस्त और सशक्त शिल्प में सँजोती और सम्प्रेषित करती है। यह इशारा करने में भी वह बाज़ाब्ता कामयाब है कि लोगों के मानवीय ढंग से जी सकने के लिए सरकारी मशीनरी के पास कोई विज़न नहीं है, अगरचे उन्हें कुचल देने के लिए अकूत शक्ति है। फिर भी लोग हैं–सरकारी मुलाज़िम और शोषित-वंचित अवाम, दोनों तरह के–जो आपसी प्रेम, सहानुभूति और न्यायप्रियता की बदौलत असह्य हालात में भी ज़िन्दगी को ख़ूबसूरत, दिलकश और कोमल बनाए हुए हैं।
राजकुमार राव, पंकज कपूर, आशुतोष राणा, आदित्य श्रीवास्तव, भूमि पेडनेकर, दीया मिर्ज़ा, वीरेन्द्र सक्सेना और कृतिका कामरा सहित सभी कलाकारों का अभिनय और संवाद अदायगी संजीदा, प्रभावशाली और यादगार है।
फ़िल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए, उस तीखे और निर्मम विभाजन का गवाह बनने के लिए, जो इतिहास के इस अभिशप्त दौर में भारत में है और जिस घुटन, बेचारगी और यातना को यह सामने लाती है, उसे देखकर लगता है कि इस तरह तो यह समाज नहीं चल पाएगा।
फिर किस तरह चलेगा? इसकी दृष्टि भी फ़िल्म के एक संवाद में सारभूत रूप से ज़ाहिर हुई है, जिसे राजकुमार राव ने मर्मस्पर्शी अंदाज़ में व्यक्त किया और आशुतोष राणा ने बेहतरीन ढंग से उस पर मुहर लगाई है : ‘अपनी सारी ताक़त को निचोड़कर बहा दो, उसके बाद जो बचेगा, वही न्याय है।’