आप अपने कर्मों के मालिक खुद हैं। आप जो भी करते हैं, उसका परिणाम आता है। ऐसा संभव नहीं है कि आप जो कर्म करते हैं, उसका कोई परिणाम न आए। ऐसे में बेहतर कर्म ही आपको सुख की ओर ले जा सकते हैं। खराब कर्म अपनी आत्मा को मार देते हैं और खराब कर्म करने वाला अपनी नजरों में गिरा रहता है, बता रहे हैं सत्येन्द्र पीएस….
जीवन में लचीलापन बहुत जरूरी है। जिंदगी कोई फ़िल्म नहीं है कि आप डायलॉग बोल दें कि ‘पुष्पा झुकेगा नहीं’ और ‘फ्लावर नहीं, फायर है मैं।’ दिलचस्प है कि मूल फ़िल्म में यह डायलॉग नहीं था और फ़िल्म को हिंदी में डब किया तो डाल दिया, जिससे दर्शकों और श्रोताओं को मजा आ जाए।
लेकिन असल जिंदगी में यह बहुत मजेदार नहीं होता है। अगर आपमें फ्लैक्सिबिलिटी नहीं है, आपका रुख लचीला नहीं है, तो जिंदगी में खुद तो टूटेंगे ही, दूसरे को भी तबाह करते हैं।
लचीलापन में स्ट्रांगनेस होती है। अगर कोई व्यक्ति मजबूत नहीं है तो वह अपना रुख लचीला नहीं रख सकता। वह कन्फ्यूज रहेगा कि उधर वाले में कहीं घाटा न हो जाए, कहीं धोखा न हो जाए। ऐसे में वह एक ऐसी लकीर पर चलता रहेगा, जिसमें उसे लाभ दिखता है। लेकिन अगर आपके भीतर मजबूती है तो आप दूसरे के आइडिया का भी सम्मान देते हैं। उसे आजमा सकते हैं। आइडियाज पर अपना रुख बदल सकते हैं।
लचीलेपन और थाली का बैंगन होने में अंतर है। लचीलापन के साथ मजबूत जड़ जरूरी है। उदाहरण के लिए झण्डा फहरता है तो बहुत सुंदर लगता है, लेकिन अच्छा तभी लगता है जब वह मजबूत डंडे से जुड़ा होता है। अगर डंडा न हो या डंडा कमजोर हो तो झंडे की कोई वैल्यू नहीं है। वह उड़कर पता नहीं कहां चला जाएगा। इसी तरह से लचीलेपन के लिए आपके फंडामेंटल्स बहुत मजबूत होने चाहिए। बहुत क्लियर कट होना चाहिए कि आप क्या हैं, आपकी दिशा क्या है, आपका लक्ष्य क्या है। वर्ना इसके बहुत चांस हैं कि कोई आपको अपने वेग में उड़ा ले जाए, अपनी धारा में बहा ले जाए। अगर आपकी कोई अपनी जड़ होगी, आपका अपना कोई डंडा होगा तो आप उस जड़ से जुड़े रहेंगे, उस झंडे में लगे रहकर फहराते रहेंगे।
थाली का बैंगन होना लचीलापन नहीं है।
अगर आपके मन मे पाप है, बुरे खयालात हैं, आपके कर्म मैले हैं, आप अपने स्वार्थ में जी रहे हैं, अपने छोटे मोटे लाभ के लिए इधर उधर लुढ़क रहे हैं, तो बहुत मुश्किल है। वह थाली में का बैंगन होना है। ऐसी स्थिति में आप कहीं के नहीं होंगे। आप बगैर डंडे वाले झंडे के इधर उधर उड़ेंगे, या कहीं गिरकर मिट्टी में लिथड़ जाएंगे।
राजगृह के वेणुवन में गौतम बुद्ध अपने एक जिज्ञासु चुन्द (सुकरिक) से कहते हैं…
इथ सोचति पेच्च सोचति पापकारी उभयत्थ सोचति।
सो सोचति सो विहन्त्रति दिस्वा कम्मकिलिट्ठमत्तनो ॥15।।
(इह शोचति प्रेत्य शोचति पापकारी उभयत्र शोचति।
स शोचति स विहन्यते दृष्ट्वा कर्म क्लिष्टमात्मनः ।।15।।)
इस लोक में शोक करता है और परलोक में जाकर भी, पापी दोनों जगह शोक करता है। वह अपने मैले कर्मों को देखकर शोक करता है, पीड़ित होता है।
आजकल तमाम बाबा बाबी पैदा हो गए हैं। लोग उन्हें देखकर कुढ़ते भी हैं कि मर्सिडीज खरीद लिया, फेरारी खरीद लिया और लोगों को ज्ञान देता फिरता है कि त्याग करना चाहिए। यह सब भी मौजूदा और पूर्व जन्म की चेतनाओं का प्रतिफल माना जा सकता है। वरना मैंने देखा है कि तमाम लोग बबाये हुए हैं। ज्ञान दे रहे हैं। मंदिरों और गलियों में कथावाचकों की कमी नहीं है। जिस रेट का कथावाचक आपको चाहिए, वह मिल जाएगा। लेकिन कुछ ही हैं जो फेरारी और मर्सिडीज से घूम पाते हैं। उनसे भी बहुत जलने और कुढ़ने की जरूरत नहीं है। अगर वही आपको अच्छे लगते हैं और वह ईजी मनी लगता है तो उसी फील्ड में ही सच्चे मनोयोग से जुट जाइये। उस पर कोई संवैधानिक प्रतिबंध तो है नहीं! आप भी ट्राई कर लीजिए और देख लीजिए कि उधर धन बनाना ईजी मनी है या नहीं। आप जो बाबूगीरी, मास्टरी या कुछ करके कमा-खा रहे हैं, उसकी तुलना में ईजी मनी है या हार्ड मनी! या सचमुच उस दुनिया में पहुँचकर आप मोह-माया से मुक्त हो जाते हैं!
स्वाभाविक है कि बाबाओं में फ्रॉड बहुत हैं, जो बुद्ध के समय से ही त्याग के प्रतीक रहे भगवा को बेचकर पैसे बना रहे हैं। जो भगवा राज पाठ, करोड़ों का कारोबार छोड़ देने का प्रतीक था, उसे लोगो ने सांसारिक सुख और धन जुटाने, सरकार बनाने, सांसद विधायक बनने के लिए पहनना शुरू कर दिया!
लेकिन सच्चाई यही है कि अगर आपके कर्म शुद्ध नहीं हैं, आपको लगता है कि जो कर रहे हैं, वह झूठ है, गलत है, पाप है तो कहीं न कहीं आप हर पल, हर दम और कोई भी मुसीबत होने पर सबसे पहले खुद की नजरों में ही जलील होते रहेंगे। लेकिन आपके मुताबिक अगर आपको लगता है कि आपके कर्म अच्छे हैं, आप दूसरों को सुख दे रहे हैं, दूसरे को शांति दे रहे हैं, दूसरे को मदद पहुँचा रहे हैं तो किसी भी हाल।में आप अपनी नज़रों में नहीं गिरेंगे। आप खुद को जलील नहीं करेंगे।
श्रावस्ती के जेतवन में गौतम बुद्ध एक धार्मिक यानी उपासक से कहते हैं..
इघ मोदति पेच्च मोदति कतपुञ्जो उभयत्य मोदति।
सो मोदति सो पमोदति दिस्वा कम्मविसुद्धिमत्तनो ॥16॥
(इह मोदते प्रेश्य मोदते कृतपुष्य उभयत्र मोदते ।
स मोदते स प्रमोदते दृष्ट्वा कर्मविशद्धिमात्मनः।॥16॥ )
इस लोक में मोद करता है और परलोक में जाकर भी, पुण्यात्मा दोनों जगह मोद करता है। वह अपने कर्मों की विशुद्धि को देखकर मोद करता है, प्रमोद करता है।
तो जीवन मे लचीला बनें। दूसरों को सुनें। हमेशा सुखी रहेंगे। आप इस लोक और परलोक दोनों में ही खुश और सुखी रहेंगे।