कामनाएं इच्छाएं सोच सबकुछ बदलती रहती हैं यह सब मन से पैदा हुई चीजें हैं धम्म पद-1

कामनाएं इच्छाएं सोच सबकुछ बदलती रहती हैं यह सब मन से पैदा हुई चीजें हैं धम्म पद-1

सत्येन्द्र पीएस

जिंदगी भी बड़ी अजीब है। 15 साल पहले यह फील होता था कि इस पद पर होते, इतनी सेलरी मिलती तो बस मज़ा ही आ जाता। सपने होते थे। अब लगता है कि क्या है यह सब? घण्टा हो गया? क्या मिल गया? यही पाने के लिए व्याकुल रहते थे?

इसका परिणाम यह हुआ कि सेलरी, प्रमोशन, पद वगैरा को लेकर जीवन में कोई उत्साह बचा ही नहीं!

पत्नी से पूछा कि ऐसी फीलिंग क्यों आ गई है? पहले तो उन्होंने कहा कि जैसे सब लोग उत्साहित होते हैं वैसे आप भी उत्साहित रहिए! कम से कम जीवन मे क्षणिक खुशी ही सही, खुशी तो आएगी ही! मैंने कहा, कोशिश तो मैं भी करता हूँ, लेकिन फीलिंग ही नहीं निकल रही है! यही लगता है कि क्या घण्टा हो जाएगा?घण्टा बदल जाएगा? क्या ऐसा हो जाएगा, जिसे लेकर घण्टे दो घण्टे के लिए भी खुश हो जाऊं? क्या उससे अपने ऊपर के आर्थिक, सामाजिक कर्ज का आधे परसेंट भी चुका सकता हूँ?

पत्नी मुस्कुराईं। उन्होंने कहा कि मुझे भी यही लगता है कि आपके मन मे यही आता होगा कि क्या यही बनना था? और यह होने पर भी क्या बन जाना है?

यह सब मनोस्थितियाँ आजकल चल रही हैं। यही ख्याल आता है कि मैं क्या हूँ? यह कैवल्य मेरे लखनऊ के एक प्रिय मित्र को दशक भर पहले प्राप्त हो गया था। तब लोगों के मन मे उनके प्रति अजीब अजीब धारणा आती थी। उसकी वजह यह थी कि लोगों की सोच की अपनी लिमिटेशंस हैं। अपन का दिमाग एक दशक बाद वहां तक पहुँच पाया कि अरे यार…. क्या छोटी छोटी सोच आती है मन में! किस चूहा दौड़ में फंसे हैं और यह चूहा दौड़ करनी ही क्यों है? क्या अपने कर्म करते रहकर सुकून से नहीं रहा जा सकता है?

मनोस्थिति पर गौतम बुद्ध ने बड़ी सिंपल सी, लेकिन दिलचस्प बात कही है जो धम्म पद के पहले चैप्टर के पहले श्लोक में ही है। गौतम बुद्ध श्रावस्ती यानी जेतवन में अपने एक शिष्य से कहते हैं…

मनो पुब्बङ्गमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया।

मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा।

ततो नं दुक्खमन्वेति चक्क’ व वहतो पदं ।।1।।

(मनःपूर्वङ्गमा धर्मा मनःश्रेष्ठा मनोमया।

मनसा चेत्प्रदुष्टेन भाषते वा करोति वा।

तत एनं दुःखमन्वेति चक्रमिव वहतः पदम् ॥1॥)

मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है। मन उनका प्रधान है। वे मन से ही उत्पन्न होती हैं। यदि कोई दूषित मन से वचन बोलता है या काम करता है, तो दुःख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार चक्का गाड़ी खींचनेवाले बैलों के पैर का।

मनो पुब्बङ्गमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया।

मनसा चे पसन्नेन भासति वा करोति वा।

ततो नं सुखमन्वेति छाया’व अनपायिनी ॥2॥

(मनःपूर्वङ्गमा धर्मा मनःश्रेष्ठा मनोमया।

मनसा चेत् प्रसन्नेन भाषते वा करोति वा।

तत एवं सुखमन्वेति छायेवानपायिनी॥2॥)

मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है। मन उनका प्रधान है। वे मन से ही उत्पन्न होती हैं। यदि कोई प्रसन्न (स्वच्छ) मन से वचन बोलता है या काम करता है, तो सुख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार कि कभी साथ नहीं छोड़नेवाली छाया।

अब लगता है कि किस तरह से मनोभाव बदलते रहते हैं। प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। और कितनी तेजी से यह सब बदलते हुए समय बीतता है! एक दशक से लगातार लग रहे झटकों ने एक चीज तो दिया है! ऐसा लगता है कि पहले की तुलना में मैं थोड़ा सा अधिक मनुष्य बना हूँ! अब खुद की सारी वीरता निकल गई है। यही फील आता है कि जमाने के सामने अपनी हस्ती ही क्या है?

ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएं हम तो क्या?

दुनिया से खामोशी से गुज़र जाएं हम तो क्या?

साथ ही एक शून्यता का बोध भी उपजा है। कुल मिलाकर लगता है कि मैं शून्य हूँ। मेरा तो कुछ है ही नहीं। तमाम चीजें पर्सनल होने का सपना लेकर हम जीते हैं कि यह मेरे पास होता, मेरा बेटा ऐसा होता, मेरी बेटी ऐसा होती, मेरा मकान ऐसा होता! इसी में पूरी जिंदगी कटती है न?

अब एक दशक के झटकों के बाद पग-पग पर प्रतीत्यसमुत्पाद का अहसास होता है! लगता है कि किस्तों में जो जिंदगी जी रहा हूँ, वह कहां अपनी है? अपने दम पर, अपनी सेलरी पर तो मैं कहीं किसी सरकारी अस्पताल या सरकारी अस्पताल की लाइन में दम तोड़ देता। या यह भी सम्भव था कि कहीं भूख से मर गया होता! हम जो जिंदा भी हैं तो समाज के तमाम तत्वों की वजह से। तमाम मित्र, तमाम रिश्तेदार जिंदा रखना चाहते हैं इसलिए जिंदा रखे हुए हैं! तमाम डॉक्टर मुझे जिंदा रखने की कोशिश करते हैं!

ऐसे क्या घण्टा मैं और मेरा होगा? जब मैं आश्रम की बात करता हूँ तो 10 साल पहले जो मेरे दिमाग में आता था, वह आम लोगों के दिमाग मे आता है कि कार, गाड़ियां, अय्याशियां! और मेरे मन मे सिर्फ यह आता है कि सुकून, खुशी। अपनी नहीं, दूसरों की खुशी। यह मन में आता है कि काश… मेरे आसपास के लोगों के पास फेरारी और मस्टैंग होती तो मैं उसी से यात्रा करता!

तो आप मेरे मित्र बन जाइए! पक्का है कि आपके लिए फेरारी मस्टैंग ही नहीं, निजी चार्टर और महल की भी कामना करूंगा। मुझे तो यह सब अब सरदर्द लगता है। बस यही मन में आता है कि जीवन के जो भी साल बचे हैं, उसे सुकून से, हंसते मुस्कुराते जी लिया जाए! और कोई कामना बची ही नहीं। जितना धन आता है उससे 3 गुनी मुसीबतें आती हैं, ऐसे में अपने लिए क्या ही कामना करूँ!!

#भवतु_सब्ब_मंगलम

 

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