सत्येन्द्र पीएस
चाय बनाना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। एक तो दूध वाला बर्तन खराब होता है। दूसरे, जिस बर्तन में चाय बनाई जाए, उसमें चाय दूध चायपत्ती ऐसा चकठ जाती है कि कहिए मत। चाय के कप और गिलास तो न सिर्फ साफ करना समस्या है, बल्कि उन्हें सहेजकर रखना भी आफत है। और इतनी कवायद के बाद चाय मिलती है। इसे न पीने में कोई मजा है, न पेट मे कोई तीहा होता है।
अभी तबियत खराब है। पत्नी करीब 5 घण्टे पककर घर पहुँचने वाली थीं तो मैंने सोचा कि उनके प्यार में चाय बनाई जाए। मैं भी पी लूंगा। करीब 3 कप यानी आधे लीटर दूध लेकर उसमें पानी डालकर गैस पर चढ़ा दिया। उसके बाद अदरक कालीमिर्च कूटने में लग गया। थोड़ी देर में ही दिखा कि दूध फट गया है। फिर दूध देखा तो ऐसा फील हुआ कि मेकिंग प्रोसेस में दही थी, जिसकी चाय मैं बनाने लगा था। उसके बाद सोचा कि अभी पत्नी आएंगी तो उनको हड़काउंगा कि यह दही बनाने का क्या शौक चर्राया था, मेरी चाय का नास हो गया!
उसके बाद थोड़ा नॉर्मल हुआ। सोचा कि पत्नी के प्यार में पहले नमकीन छानते हैं। बाद में देखा जाएगा कि दूध कहाँ है। तेल चढ़ा दिया। आलू का चिप्स जैसे ही कड़ाही में डाला, वह गोल गोल फूलकर फुलकी बन गया। नमकीन से भी मेरा खून खौल गया कि यहां भी धोखा।
तब तक पत्नी आ चुकी थीं। जो काम प्यार के लिए कर रहा था, न पसन्द होने के बावजूद कर रहा था, वह महाभारत का रूप ले चुका था। उसके बाद क्या हुआ होगा, पत्नी वालों को पता ही होगा, बगैर पत्नी वालों को डराने का कोई मन नहीं है
श्रावस्ती में थुल्लतिस्स से बात करते हुए गौतम बुद्ध कहते हैं…
अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मं।
ये तं उपनय्हन्ति वेरं तेसं न सम्मति।।3।।
(अक्रोशीत् मां अवधीत् मां अजैषीत् मां अहार्षीत् मे।
ये च तत् उपनह्यन्ति तेषां वरं न शाम्यति।।3।।)
उसने मुझे डाँटा, उसने मुझे मारा, उसने मुझे जीत लिया, उसने मेरा लूट लिया- जो ऐसा मन में बनाये रखते हैं, उनका बैर शान्त नहीं होता ।
अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहाति मे।
ये तं न उपनय्हन्ति वेरं तेसूपसम्मति ।।4।।
(अक्रोशीत् मां अवधीत् मां अजैषीत् मां अहार्षीत् मे।
ये तत् नोपनह्यन्ति वैरं तेषूपशाम्यति।।4।।)
उसने मुझे डाँटा, उसने मुझे मारा, उसने मुझे जीत लिया, उसने मेरा लूट लिया – जो ऐसा मन में नहीं बनाये रखते हैं, उनका बैर शान्त हो जाता है।
मतलब बुद्ध कहना चाह रहे हैं कि मन में बैर न बनाएं। इससे बैर कभी शांत नहीं होगा। तमाम किबिल्ली करने वाले लोग यह तत्काल कहेंगे कि यह फालतू की बात है। कोई राजपाठ छीन ले, मुझे लूट ले और उसे मन मे बनाए भी न रखा जाए?उससे बदला भी न लिया जाए? यह तो अति है, यह हद है।
खैर मूढ़ मति लोग यह बिल्कुल नहीं समझ सकते कि ऐसे केसेज में कैसे निपटा जा सकता है? उन्हें लगता है कि उसने मुझे मारा तो हम भी दौड़ाकर मार देते हैं। ठीक हो जाएगा। लेकिन ठीक कहाँ होता है? सामने वाला फिर दौड़ाकर मारता है।
इतिहास देखें तो ऐसे मामले भरे पड़े हैं। चोल चालुक्य संघर्ष 400 साल चलता रहा। कभी विष्णु को समुद्र में फेंक दिया जाता था तो कभी शिव को। और विजय मुकम्मल मान ली जाती थी। लेकिन विजय मुकम्मल कभी हुई ही नहीं।
अब डिफेंस किया जाता है। यह बुद्धिज्म है कि आप अपने विजडम से फैसले करें कि किस केस में क्या कदम उठाना मेरे और सम्पूर्ण मानवता के हित में है।
दुनिया भी पति पत्नी का विस्तारित रूप है। अगर आप बैर पाले बैठे हैं, छोटी छोटी बात पर सींग निकल आती है तो बहुत मुश्किल है। और ऐसे भी केसेज हो सकते हैं कि हाथी पर बैठकर जा रहे हों तब भी कुत्ता काट ले। मैंने तो प्यार में चाय बनाना और नमकीन छानने की कोशिश की और उधर अलग ही कांड होता गया। लेकिन यह अपवाद है। पत्नी का सपना था कि दही बनाएं। मैं उनके सपने का चाय कर चुका था। ऊपर से फुलकी और आलू चिप्स में अंतर समझ नहीं पाया। और फिर गुस्सा करके लड़ने को भी तैयार ही बैठा था!
सही बात तो यही है कि प्यार से प्यार बढ़ता है और बैर पालने से बैर बढ़ता है।
श्रावस्ती (जेतवन ) में ही काली यानी यक्षिणी से गौतम बुद्ध कहते हैं…
न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो।।5।।
(नहि वैरेण वैराणि शाम्यन्तीह कदाचन।
अवैरेण च शाम्यन्ति, एष धर्मः सनातनः ॥5।।
इस संसार में बैर से बैर कभी शान्त नहीं होते, अवैर (मैत्री) से हो शान्त होते हैं- यह सदा का नियम है।
गौतम बुद्ध ने इसे ही सनातन धर्म बताया है कि इस संसार मे बैर से बैर शांत नहीं होते और मैत्री से बैर शांत हो जाता है।
इस मैत्री का अभ्यास घर से ही शुरू किया जा सकता है। हमारी ज्यादातर लड़ाई तो घर में ही है, जहां कोई किसी का दुश्मन नहीं होता। बैर से बैर शांत नहीं होता, अबैर से शांत हो जाता है…. एस धम्म सनातन