वीर विनोद छाबड़ा
उन्तालीस साल पहले. आज ही का दिन था. दोपहर चढ़ रही थी. एक हृदय विदारक ख़बर आयी. यकीन नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री की भी कोई हत्या कर सकता है और वो भी इंदिरा जी जैसी लौह महिला की. ज़बरदस्त सुरक्षा कवच था उनके आस-पास. जिसने भी सुना उसका पहला रिएक्शन था, किसी अपने ने ही मारा होगा उन्हें. और सचमुच थोड़ी ही देर में साफ़ हो गया कि अपनों ने ही मारा था उनको. इंदिरा जी को हमेशा अपनों ने ही सताया है. उनको प्रधानमंत्री बनाने में कितने रोड़े डाले गए. गूंगी गुड़िया तक कहा गया. जब वो गूंगी गुड़िया बोलने लगी तो बड़े-बड़े काम कर गयी. मोरार जी भाई देसाई का गुट कोई मौका नहीं चूकता था उन्हें नीचा दिखाने का, चाहे बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या प्रिवी-पर्सेस का उन्मूलन. वीवी गिरी को राष्ट्रपति बनाने में उन्होंने अहम भूमिका अदा की.
मुझे याद आता है 1977 में इंदिरा गांधी चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हुई थीं. इमरजेंसी ले डूबी थी उन्हें. बेटे संजय गांधी और उनके गुट की ज्यादतियां भी उतनी ही ज़िम्मेदार थीं. विपक्ष उन्हें पानी पी पी कर कोसता रहा. अब ये दीगर बात है कि आज उन्हीं संजय गाँधी की विधवा पत्नी मेनका और उनका बेटा बीजेपी में आराम फ़रमा रहे हैं. बहरहाल, पूरा मुल्क और यहां की कांग्रेस संगठन भी मान बैठा था कि कांग्रेस तो गई ही, इंदिरा जी भी डूबी समझो. लेकिन इंदिरा जी ‘इंडिया’ भले नहीं नहीं थीं लेकिन ‘इंदिरा’ तो थी हीं. जल्दी ही उन्होंने अहसास करा दिया था कि चुनाव तो कांग्रेस हारी है इंदिरा नहीं. संसद से बाहर हुई हैं, राजनीति से नहीं.
इंदिराजी राजनीति की चतुर और घाघ खिलाड़ी रहीं. अमेरिकी घुड़की को धता बता दी और 1971 में पाकिस्तान को युद्ध में मटियामेट करके बांग्लादेश का निर्माण करने की एवज़ में दुर्गा और लौह महिला का ख़िताब उन्हें हासिल था ही. उन्हें अपने विरोधियों की औकात पता थी. अकेली होने के बावजूद डट कर मुक़ाबला करने का माद्दा पहले से भी मज़बूत हो गया. घायल शेरनी थीं वो उस दौर में. मृतप्रायः संगठन में जान फूंकने के लिए मोरारजी की सरकार पर हमला करने का कोई भी मौका नहीं गंवाया.
इंदिराजी चाहतीं थीं कि जनता पार्टी की सरकार उनके विरुद्द कड़ी कार्यवाही करे. वो किसी भी आयोग से नहीं डरीं. ख़ुशी ख़ुशी जेल गई. बल्कि ऐसी परिस्थितियां सृजित की कि उन्हें जेल भेजा जाए. पुत्र संजय गांधी गुट को नेपथ्य में रखा. आंध्रा में टी अंजैया और कर्नाटक में देवराज उर्स जैसे क्षत्रपों के साथ वो आगे बढ़ीं. चिकमंगलूर से लोकसभा का उपचुनाव जीतीं. जली-भुनी जनता पार्टी ने उनकी सदस्यता रद्द कर दी. ये निम्नतम स्तर की राजनीती की सबसे बड़ी गिरावट में दर्ज है. इंदिरा जी भी जनता पार्टी को गर्त में गिरने का मौका देना चाहती थीं. पब्लिक की सहानुभूति उनके साथ दिन प्रति दिन बढ़ती ही चली गयी. कुछ ऐसी धारणा बनी कि वो एक अकेली नारी हैं जिसके पीछे पड़ा है सारा जहान. उन्होंने इस छवि को सदैव बनाये रखा. इधर जनता पार्टी में अपने अंतर्विरोधों के कारण टूटन शुरू हो चुकी थी. इंदिराजी ने इसका भी भरपूर फायदा उठाया. भरपूर प्रहार किये। उनके लिए चक्रव्यूह रचने वाले खुद ही उसमें फंस गए. नतीजा ये हुआ कि सत्ता से हटने के सिर्फ ढाई साल बाद वो 353 सीटें जीत कर सत्ता में वापस आ गयीं.
आज कांग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं है. वो वाले दिन नहीं लौटेंगे, ये तो साफ़ है. मगर ये भी सच है कि अगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ वही लड़ सकता है जिसमें इंदिरा जी जैसे सख़्त निर्णय लेने वाली ताक़त हो.