अनाज की बढ़ती महंगाई और शहरों की भुखमरी का दर्द
गेहूं की कीमत दिल्ली में 31 रुपये किलो हो गई. चावल की पैदावार भी कम हुई है. सरकार ने गरीबों को दिया जा रहा अनाज आधा कर दिया है, जिससे मुफ्त अनाज पाने वाले भी पेट भरने के लिए बाजार दौड़ रहे हैं. ऐसे में एक किसान सुरेंद्र सिंह चौधरी ने शहरों की स्थिति पर आपबीती साझा की है. अगर शहर में निजी क्षेत्र में काम कर रहे किसी इंसान की नौकरी चली जाए तो वह सीधे भुखमरी के कगार पर पहुंच जाता है, क्योंकि आज की तारीख में प्राइवेट सेक्टर में शायद ही किसी को इतनी सैलरी मिलती है कि वह खाने के अतिरिक्त कुछ बचा पाए. सभी मोटे अनाज की कीमत बढ़ रही है.
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वह लिखते हैं कि बच्चों को पढ़ाई के लिए लखनऊ में किराए का मकान लिया गया था. .एक गढ़वाली ब्राह्मण परिवार के घर की ऊपरी मंजिल में डेरा जमा. पत्नी स्थाई रूप से बच्चों के भोजन पानी और देखभाल के लिए रहने लगीं. महीने में दो चक्कर लखनऊ मैं भी लगाता था कि सबकुछ ठीक ठाक तो है.
हमारे आवास की बालकनी से पड़ोसी का दो मंजिला मकान भी सटा हुआ था. स्वाभाविक था कि धीरे धीरे हमारी जान पहचान और घनिष्ठता भी बढ़ी. पड़ोसी दो भाई थे, नीचे की मंजिल पर बड़े भाई और ऊपर की मंजिल पर छोटा भाई अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहता था. संभ्रांत परिवार था.
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एक बात मुझे खटकती थी कि दोनों भाइयों में शायद हद दर्जे की संवादहीनता थी, क्योंकि मैंने कभी तीज त्योहारों पर भी दोनों परिवारों को मिलते जुलते नहीं देखा था.
एक बार की बात है कि मैं लखनऊ बच्चों के पास गया था. सुबह 9 बजे का वक्त रहा होगा. सीढ़ियों से नीचे उतर कर गेट खोला तो ऊपर की मंजिल वाले पड़ोसी अपने घर के बाहर अपना स्कूटर स्टार्ट कर रहे थे. मुझे देखते ही रुके और हालचाल पूछने लगे. मुझे लगा कि मेरा हालचाल पूछने वाला व्यक्ति किसी गहरे संकट से जूझ रहा है. उन्हें टटोलने के लिए मैंने उनसे कहा कि आप बीमार जैसे लग रहे हैं, क्या बात है? इतना पूछते ही वो भरभराकर बिलकुल टूट गये. गहरे विषाद की गवाही उनके छलकते आँसुओं ने दे दी. मैंने उनकी बाँह पकड़ ली तो वह फफक कर रो पड़े. काफी जद्दोजहद के बाद वह इतना ही बता पाए कि दो दिनों से घर में अन्न का एक दाना नहीं है और न ही जेब में पैसे हैं, ये स्कूटर बेचने जा रहा था.
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मैंने उन्हें वहीं दस मिनट इंतजार करने के लिए कहा और अपने आवास से करीब तीस किलो चावल, इतना ही गेहूं और कुछ किलो दाल लाकर उनके गेट के पास रख दिया और हाथ में हजार रुपए भी. इसे मेरी उदारता का प्रचार न माना जाए बल्कि एक सबक खुद मेरे लिए और सभी पाठकों के लिए कि, ‘ अगर आपके हिस्से में दो बीघे भी जमीन है तो उसे बचाये रखिए और भूमिहीन हैं तो मेहनत मशक्कत से दो बीघे जमीन खरीद लीजिए.
लखनऊ में नौकरी/रोजगार नहीं है तो मकान भी जरूरी नहीं है. मकान के चक्कर में जमीन नहीं बिकनी चाहिए. भविष्य में जिसके पास भी जमीन होगी वह भूख से तो नहीं ही मरेगा. इसलिए कबहुं न बेचें खेत.