महात्मा गांधी जब देश में जातिवाद के खिलाफ अपनी पूरी ताकत झोंके हुए थे, उसी समय अपर कॉस्ट पोंगापंथी हिंदुओं ने हिंदुत्व की रक्षा और मुस्लिमों से खतरे का झंडा बुलंद किया, क्योंकि वे अपने अधिकार दलितों-पिछड़ों से छिनता हुआ देख रहे थे. इसी जातिवाद ने ली थी गांधी की जान. देश में एक बार फिर वही स्थिति पैदा हो गई है और हिंदू मुसलमान की बाइनरी खड़ी कर दी गई है, क्योंकि अपर कास्ट हिंदुओं को अपना पीढ़ीगत विशेषाधिकार, हिंदुओं के वंचित वर्ग के हाथों छिनता नजर आ रहा था.
जातिवाद ने ली थी गांधी की जान, यह सुनकर अजीब लगता है. इसकी वजह यह है कि ज्यादातर लोगों का मानना है कि हिंदू मुस्लिम दंगों और धार्मिक नफरतों की वजह से गांधी की जान गई थी. लेकिन हकीकत कुछ और है. महात्मा गांधी 1930 के दशक में भारत में जातिवाद के खिलाफ उग्र रूप से मुखर हो चुके थे. उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के समानांतर भारत में जातीय भेदभाव को लेकर भी मोर्चा खोल दिया था. मंदिर में प्रवेश को लेकर उन्होंने कई आंदोलन किए और घोषणा कर दी कि वह उसी विवाह समारोह में सम्मिलित होंगे, जो अंतरजातीय विवाह होंगे. गांधी के जाति विरोध अभियान से उच्च सवर्ण पोंगापंथी हिंदू खासे नाराज थे. गांधी के खिलाफ तमाम अभियान चलाए गए और आखिरकार इन कथित उच्च सवर्ण हिंदुओं ने हिंदू और मुस्लिम बाइनरी खड़ी की. इसके परिणामस्वरूप न सिर्फ देश का विभाजन हुआ, बल्कि महात्मा गांधी को भी अपनी जान गंवानी पड़ी।
नई दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब आफ इंडिया के स्पीकर हॉल में वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक पीयूष बबेले की लिखी किताब ‘गांधीः सियासत और सांप्रदायिकता’ के विमोचन के मौके पर जाने माने लेखक और महात्मा गांधी के परपोते तुषार गांधी ने मुख्य अतिथि के रूप में कहा कि महात्मा गांधी की जान इन जातिवादियों की वजह से गई. तुषार गांधी ने इस कार्यक्रम को वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम संबोधित किया.
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तुषार गांधी ने कहा कि देश में एक बार फिर वही स्थिति पैदा हो गई है. देश में अछूतों, वंचितों और पिछड़ों के हक हुकूक की बात की जाने लगी. वह सत्ता में आने लगे. उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी. ऐसे में अपर कॉस्ट के जातिवादी लोग एक बार फिर मुखर हो गए हैं. वही फॉर्मूला फिर से दोहराया जा रहा है. हिंदू और मुसलमान की बाइनरी खड़ी की जा रही है. तुषार गांधी ने कहा कि यह देश के लिए खतरनाक स्थिति है और ऐसे समय में ‘गांधीः सियासत और सांप्रदायिकता’ जैसी किताब एक उम्मीद पैदा करती है, देश में एकता और खतरनाक दौर से बाहर निकलने की उम्मीद जगाती है.
इस मौके पर पुस्तक के लेखक पीयूष बबेले ने विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र किया. बबेले ने देश के विभाजन को लेकर अंबेडकर और गांधी के बयानों में साम्यता का उल्लेख करते हुए कहा कि उस समय ऐसी स्थिति पैदा कर दी गई थी कि वह करना पड़ा, जो कोई भी देशभक्त नेता नहीं करना चाहता था. उन्होंने कहा कि इस समय एक नया वर्ग पैदा हो गया है, जो असल में गांधी जी का दुश्मन है, लेकिन उस वर्ग को बखूबी पता है कि गांधीजी से पार पाना उनके वश की बात नहीं है. ये लोग उन्ही लोगों के वैचारिक वंशज हैं, जिन्होंने गांधीजी पर पत्थर फेंके, उनके रास्ते में कांटे बोए, अखंड भारत के उनके सपने में आग लगा दी और अंत में उनकी छाती में 3 गोलियां उतारकर उनकी देह को मिट्टी में मिला दिया.
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इंस्टीट्यूट आफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज, नई दिल्ली के वाइस चेयरमैन प्रोफेसर एम अफजल वानी ने कहा कि इस समय देश बड़े कठिन दौर से गुजर रहा है और हम सबकी जिम्मेदारी है कि समाज को विभाजन और नफरत के दौर से बाहर निकालें. वानी ने कहा कि ‘गांधीः सियासत और सांप्रदायिकता’ एक एकेडमिक अध्ययन है, जो समाज में फैली तमाम भ्रांतियों को दूर करेगी.
पुस्तक विमोचन के मौके पर तुषार गांधी, वानी, के अलावा प्रोफेसर जेडएम खान, प्रोफेसर अपूर्वानंद, अमित सचदेवा, प्रोफेसर विपिन कुमार त्रिपाठी, डॉ अशोक कुमार पांडेय, अनिल नौरिया, प्रोफेसर हसीना हाशिया सहित अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे.
‘गांधीः सियासत और सांप्रदायिकता’ पुस्तक इंस्टीट्यूट आफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज ने प्रकाशित की है, जिसकी कीमत 499 रुपये है. बबेले ने इसके पहले ‘नेहरूः मिथक एवं सत्य’ पुस्तक लिखी है, जो बहुत चर्चित रही है.