जो सामने आए उसे स्वीकार करके बेहतर करने की कोशिश ही अच्छी रणनीति

जो सामने आए उसे स्वीकार करके बेहतर करने की कोशिश ही अच्छी रणनीति

मनुष्य के सोचे के मुताबिक उसके जीवन में बहुत कम होता है. अगर कुछ अनचाहा भी आ जाए तो बेहतर सोचकर उस दिशा में काम करते रहना एक अच्छा विकल्प साबित होता है. जीवन में घटित हुई चीजों को नियति मानकर हंसी खुशी करते रहने पर जोर दे रहे हैं सत्येन्द्र पीएस…

 

कल एक मित्र मिले। 20 साल पहले जो उनका सपना था, वह अब जाकर पूरा हुआ। लेकिन बहुत दुखी थे। 20 साल पहले जो काम करने का उनका सपना था, वह उन्हें न करना पड़े, उसके लिए उन्होंने बड़े तर्क दिये, बड़ी कोशिश की। फिर भी उन्हें वह करना पड़ रहा है, जबकि वह काम अब उनके माफिक नहीं है। उन्हें यह फील हो रहा है कि अब बूढ़ारी में कहां इतना भागदौड़ हो पाएगा?

मतलब 20 साल पहले जो सपना था, वह अब उनके लिए सरदर्द है। 20 साल पहले जब वह अपना सपना बताते थे तो मुझे हंसी आती थी। मुझे लगता था कि क्या बकवास बात कर रहे हैं? जिसको यह काम बता रहे हैं वह बहुत बड़ा सरदर्द है, क्योकि जिसे वह असली काम बताते थे, उस काम में मैं फंसा हुआ फील करता था

जब उनको याद दिलाया कि अपका तो 20 साल पुराना सपना था और इससे अच्छा क्या है कि वह पूरा हुआ? फिर मैंने ही जोड़ा कि बूढ़ारी में भागदौड़ थोड़ी मुश्किल होगी!

पूरी कहानी समझने में मुश्किल हो रही होगी क्योंकि मैं अपने मित्र व उनके काम की प्राइवेसी बचाए रखना चाहता हूँ। मुझे बताने में कोई हर्ज नहीं है, न मेरी बेइज्जती होगी। और मेरे मुताबिक तो उनकी भी बेइज्जती नहीं होगी, बल्कि जलवा ही बढ़ेगा। लेकिन मित्र लोग कब मुंह फुलाकर बैठ जाएं, कब ज्वलनशील पदार्थ हो जाएं! कब उनकी इज्जत ही चली जाए! कब बैठकर लाइक कमेंट गिनने लगे कि मेरे बारे में लिखकर यह बन्दा हीरो बन गया, यह सब लेकर मेरा अनुभव बहुत गंदा रहा है। और जो मित्र हैं, उन्हें मैं गंवाना नहीं चाहता, वो जिस फॉर्म में है उसी में उन्हें स्वीकार्य बनाए रखना चाहता हूँ।

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खैर…

असल में हमारे सपने परिस्थितियों के मुताबिक पल प्रतिपल बदलते रहते हैं। मुझे महक की एक बात याद आ रही है, जब वह 8 साल की थी। मेट्रो स्टेशन से घर आते एक बार उन्हें रिक्शे के पीछे वाली सीट पर स्वतंत्र बिठा दिया गया। घर पहुंचकर वह बहुत खुश हो गई कि मेरा बचपन का सपना पूरा हो गया। मतलब वह जब 2-3 साल की थी तब से यह सपना देख रही थी कि मुझे पीछे वाली सीट पर अकेले बैठना है और जब वह बैठने के लिए मचलती थी तब हम लोग डांट देते थे कि अभी छोटी हो, गिरोगी तो दांत टूट जाएंगे। जब पहली बार हम लोगों ने बैठने दिया तो वह इतनी खुश थी कि आज तक वह याद है।

मैंने अपने मित्र से कहा कि आप जो नया असाइनमेंट मिला है, उसे इंज्वाय करें। आप अभी कामरेड आदमी बने हुए हैं, मैं तो नहीं हूँ। आप थोड़ा ईश्वरवादी हो जाएं। यह मानें की नियति आपको उधर की तरफ खींचकर ले जा रही है। आप वेल बिहेव वेल कल्चर्ड व्यक्ति हैं। आपके व्यक्तित्व में आकर्षण है। आपकी मुस्कुराहट लुभावनी है। आप अच्छी मीठी बातें करते हैं। सम्भव है कि यह नया असाइनमेंट आपकी जिंदगी बदल दे। कोई एक आदमी कायदे का मित्र बन जाए तो जीवन के तमाम दुश्चक्रों से छुटकारा मिल जाता है और आप जो सपने देख रहे होते हैं, वह ऐसे पूरे होते हैं कि फील आता है कि मैं कितने टुच्चे सपने देख रहा था। इसलिए आपकी डेस्टिनी कुछ अच्छा करने के लिए आपको उस साइड में ढकेल रही है। वह इतने वेल बिहैव्ड हैं कि हूँ हां करते रहे कि सही कह रहे हैं। लेकिन वह मुझे चिरकुट मॉनव ही समझते हैं इसलिए मेरी बात कितनी मानेंगे, यह कहना मुश्किल है।

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इसी बीच उनके एक और कॉमरेड ने भी नेक सलाह दी। आपको करना ही है, जो काम कह दिया गया है। आपके पास विकल्प क्या है? इस बयान पर वह बहुत उत्साहित हो गए। जैसे किसी ने उनके दिल की बात कह दी हो। मुझे अंदर से फील हुआ कि अब तक जो ज्ञान मैंने दिया, वह झंड गया। यह नया टास्क यही मन मे लेकर करने जा रहे हैं कि विकल्प क्या है मेरे पास? करना ही है मजबूरी में।

खैर… मैं अब भी अपने थॉट पर कायम हूँ। उस काम को करने का दो तरीका है। एक तो खुशी से एक्सेप्ट करें और यह ध्यान में रखें कि इतना बढ़िया काम मिला है, एक कोई कायदे का मित्र मिल गया तो वह बड़ी उपलब्धि होगी, या कोई भी अच्छा टास्क मन मे लेकर मैदान में कूद जाएं। दूसरा ऑप्शन यह है कि आप रोज घर से रोते हुए निकलें कि फंस गए हैं तो विकल्प क्या है? मैं अब भी पहले विकल्प की सलाह दूंगा!

मेरी यह सलाह हर मनुष्य के लिए है, हर युवा के लिए है। बेसिकली संस्कार में सुख है ही नहीं। आपने या समाज ने जो भी संस्कृत रचा है वह व्यवधान है। उसमें संतुष्टि मिल ही नहीं सकती। आप इसे बच्चे के जीवन से समझें। जब आप 2 माह के बच्चे को चड्ढी या टोपी पहनाते हैं तो वह उसको तत्काल उतारकर फेंक देता है। उसे परम अनुभव होता है कि उसे बंधनो से मुक्ति मिली। वह खुश होकर हंसता है। जब वह बड़ा होता है तब तक उसको आप इतनी बॉडी शेमिंग सिखा चुके होते हैं कि वह नङ्गे रह ही नहीँ सकता।

इसी तरह नौकरी भी है। यह थोपी हुई चीज है। कोई भी काम आपको जब करने को कहा जाता है तो वह सरदर्द है। फिर धीरे धीरे अनुकूलन हो जाता है यानी आप संस्कारित हो जाते हैं। फिर अगर उसमें बदलाव किया जाए तो फिर आपको सरदर्द हो जाता है।

जब आप अपनी मर्जी से काम करते हैं तो उतना सरदर्द नहीँ होता। यही वजह है कि जो बॉस जितनी फ्रीडम देता है, उससे आप उतने ही खुश रहते हैं और ज्यादातर केसेज में काम भी अच्छा होता है फ्रीडम में। वहीं जो बॉस गण्डजरा होता है, आपके हर काम मे मीन मेख निकालता है, दुनिया का बोझ अपने सर पर लिए रहता है कि हमी हम काबिल हैं। आखिरकार वह सबऑर्डिनेट से जूता खाता है, खुद भी डर डरकर काम करता है और दूसरे को भी नहीं काम करने देता। फ्रीडम देने में भी एक चीज ध्यान देने को है कि आप विवेक का कैसे इस्तेमाल करते हैं? ऐसी भी फ्रीडम न हो कि सबऑर्डिनेट आपके कपार पर मूत दे!

तो मेरे ख्याल से बेस्ट ऑप्शन यह है, जो मैंने बताया। और अगर आप डेस्टिनी को मानते हैं कि नियति आपको खींचती है तो जहां आपको वह ले जा रही है और आपको लग रहा है कि रास्ता कामचलाऊ है तो बढ़ते और बेहतर ढूंढते सोचते रहें। अपने आपको थोड़ा सा लूज कर दें। अपना महत्त्व समझें और साथ में यह भी समझें कि आप कोई विष्णु भगवान के शेषनाग नहीं हैं कि आप ही के फन पर दुनिया टिकी है।

#भवतु_सब्ब_मंगलम

 

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