राजनीति में महिलाएं

राजनीति में महिलाएं : बराबरी पर खड़ी गैर बराबरी झेलती महिलाएं

अगर यह देखा जाए कि राजनीति में महिलाएं कहां हैं, तो प्रगति बहुत धीमी दिखती है, जबकि राजनीति मानव जीवन पर बहुत असर डालती है. बता रही हैं रश्मि त्रिपाठी…

मैने अच्छी अच्छी पढ़ी लिखी महिलाओं को भी राजनीति के नाम पर मुंह बिचकाते देखा है. वे बड़े गर्व से कहती हैं हम तो राजनीति से दूर रहते हैं. अर्थात उन्होंने भी आराम से राजनीति को पुरुषों के पाले में दे दिया है, जबकि मुझे हमेशा लगता है कि राजनीति का मतलब ही है हमें हमारे आसपास की गतिविधियों की समझ होना, देश दुनिया के हालात समझना.

मुझे तो छटपटाहट होती है अगर अखबार न देखूं, या कोई समाचार न मिले तो! जरूरी नही कि हम पार्टी विशेष की बातें करें तब ही राजनीति समझें. हमारी संसद में महिला बिल सिर्फ इसलिए नहीं पास हो सकता, क्योंकि सभी जानते हैं कि महिला उम्मीदवार हैं ही नहीं. उन्हे जीतने के लिए ऐसे उम्मीदवार चाहिए, जिनके नाम पर वोट मिल सकें.

राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्र में महिलाएं कम

हर क्षेत्र में महिलाएं लगभग बराबरी पर खड़ी हैं संघर्षों से हों या आरक्षण से. पर देश की राजनीति में या विश्व स्तर पर भी राजनैतिक स्तर पर महिलायें अभी बहुत कम हैं. यहां तक कि सोशल मीडिया पर राजनीति पर लिखने वाली स्त्रिंयां अभी 17% ही हैं. हमारे यहां की स्थिति ये है कि सन 1952 में 22 महिलायें सांसद बनी और 2014 में 62 महिलाएं संसद पहुंचीं. मतलब कि इस दौरान 36% की वृद्धि हुई. और 10 में 9 सांसद पुरुष हैं. 1952 में 4.4% बढ़कर 11% हो पाया है.

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क्यों मुखर नहीं हो पाईं महिलाएं

भारत में प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, विदेश और रक्षामंत्री के अलावा राष्ट्रपति भी महिला रह चुकीं हैं. और वे मुखर तो थीं ही, अपना कार्यकाल भी सकुशल पूरा किया है. इसके बावजूद पित्रसत्तात्मक समाज के कारण महिलाएं मुखर नहीं हो पाईं.

ग्राम प्रधान और निकाय चुनावों में जहां सीटें सुरक्षित होने का फायदा उन्हे मिला भी, वहां 80% मामलों में वे अपने पति की पहचान पर ही काम कर सकीं. ऐसा क्यों है?

इसका सबसे बड़ा कारण है पितृसत्तात्मक समाज! जो कि हमें हमारे दायरे ही बताता है बस!

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उसने तय किया है कि हम पढ़-लिखकर टीचर ही बन सकते हैं. या फिर डॉक्टर और अब कुछ सालों से इंजीनियर भी. जबकि इंजीनियरिंग में ज्यादा संघर्ष न रह गया, कैरियर आसान हुआ. हम अखबार में भी महिलाओं का पन्ना पढ़ते हैं, जिसमें रसोई और गृहसज्जा से संबधित बातें होती हैं. महिलाएं आपस में भी घर परिवार की ही चर्चा करती हैं.

वहीं पुरुषों के बीच देश दुनिया के हालचाल की चर्चा होती है. मैने देखा है कि राजनीति शास्त्र पढ़ने वाली लड़कियां भी बस रटकर पास होती है, डिबेट नहीं कर पाती हैं. कम से कम मैंने अपने आसपास किसी लड़की और औरत को नहीं देखा कि राजनीति पर तर्क कर सके.

हां, सोशल मीडिया पर कुछ बहुत बेहतर हैं. उनकी जानकारिंयां भी शानदार हैं.

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राजनीति धूर्तों की शरणस्थली

हमारे यहां हमेशा ही बहुत सारी किताबें आती थीं, जिनमें ज्यादातर राजनीतिक ही होती थीं. एक बार कहीं पढ़ा कि “राजनीति धूर्तों की अंतिम शरणस्थली है.”

बेहद अजीब सा लगा. अब सोचती हूं तो समझ आता है कि ये सामान्य जन के बीच अछूत क्यों बनी रही? लोग अपनी घरेलू समस्याओं में ही उलझे रहना चाहते हैं. उन्हें राजनीति समय और पैसे की बर्बादी लगती है. आखिर देश के लिये वे क्यों सोचें? ये तो सरकार का काम है.

मैंने सोशल मीडिया से सीखा

फेसबुक पर जब बेटी ने एकांउट बनाया, तो वही देखती समझती थी. कभी कोई पिक वगैरह लगा दी. दो, तीन साल तक मैंने कुछ नहीं सीखा. पर जब वो पढ़ने बाहर चली गई, तो मुझे सब समझा गई. मैंने सीखा तो पढ़ना शुरु किया और अच्छा लिखने वालों को एड करना या फॉलो करना.

फिलहाल राजनीति के अलावा मुझे कुछ भी खास समझ में नहीं आता है. साहित्य पढ़ती हूं. अच्छा लगता है. पर लिखने में दिक्कत होती है. राजनीति में जो समझ आता है लिख देती हूं. ज्यादा रिसर्च नहीं करती. पर गलत लगने पर या कुछ घटनाएं भूलने पर कुछ पढ़ना जरूरी हो जाता है.

यहां औरतों में मुझे राजनीतिक पोस्ट लिखने वाली कुछ अच्छी स्त्रियां भी मिलीं जिन्हें मैने खूब पढ़ा.

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कथा-कहानियों में राजनीति में सक्रिय महिलाएं

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में राजनीतिक समझ रखने वाली स्त्रियां रहीं न हों. रामायण काल में कैकेई राजा दशरथ के साथ ही देवासुर संग्राम में थीं. बाद में राम को वनवास की सलाह भी उनका पुत्र के लिए गद्दी का मोह ही था. महाभारत में शांतनु की दूसरी शादी ही गद्दी के बंटवारे के फैसले पर हुई. बाद में माता सत्यवती और भीष्म पितामह आपस में राजनीतिक चर्चा करके ही राज चलाते रहे. बाद में कुंती, द्रौपदी और गांधारी कई बार राजनीतिक फैसलों में आगें आईं. और युद्ध होने का कारण ही द्रोपदी बनीं.

ध्रुव और प्रह्लाद की माताएं भी राजनीति से जुड़ी रहीं. होलिका को आग में बैठाने का आइडिया प्रह्लाद की माता कयाधु का था और ध्रुव से राजपाठ छीनने का आइडिया उनकी सौतेली माता सुनीति का था.

वैदिक काल में मैत्रेयी और गार्गी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है.

इतिहास में राजनीति में सक्रिय महिलाएं

मौर्यवंश में सम्राट अशोक की पत्नी तिष्यरक्षिता ने भी उनके बड़े पुत्र कुणाल पर आरोप लगवा कर उसे मृत्युदंड दिलवाया था. और बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य का विवाह सेल्यूकस की बेटी हेलेना से राजनीतिक संबधों को बनाये रखने के लिए ही हुआ था.

मध्ययुगीन भारत में स्त्रियों का प्रदर्शन बेहद लचर हो गया था, पर रजिया सुल्तान तो गुलाम वंश में शासक ही बन गईं. जो कि पूरी जिंदगी अपने ही भाई बंधुओं का विद्रोह झेलती रहीं. याकूब के साथ उनके संबंधों को लेकर उन्हे बदनाम किया जाता रहा. जबकि उनकी जगह अगर उनका भाई किसी गुलाम औरत के साथ प्रेम संबध बनाता, तो वो उसके हरम की शोभा ही बढ़ाती, किसी को कोई आपत्ति न होती.

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अकबर के साथ रानी दुर्गावती और चांदबीबी की लड़ाइयों के किस्से सभी ने सुने होंगे. कहते हैं कि नूरजहां ने हमेशा जहांगीर का पूरा शासन संभाला. पर्दे के पीछे से ही. और मुगल वंश में शाहजहां ने सभी बच्चों की शिक्षा-दीक्षा अच्छे से की थी, तो उसकी पुत्रियां जहांआरा और जेबुन्निशा राजनैतिक कार्यों में भाग लेती रहीं.

बाद में शिवाजी की माता जीजाबाई बेहद समझदार राजनीतिक सलाहकार सिद्ध हुईं. इंदौर की अहिल्याबाई होल्कर हों या गढ़मंडल की अवंतीबाई या फिर कित्तूर की रानी चेन्नमा सभी न सिर्फ कुशल प्रशासक थीं, बल्कि अपने राजवंश की मर्यादा को समझते हुए बहुत सूझबूझ से अपना कर्तव्य निभाती रहीं।

और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को कौन नही जानता ?

स्वतंत्रता संग्राम के समय देशभक्ति का जो जज्बा हर स्त्रीपुरुष में था उसमें भी बहुत सी स्त्रियां अपने परिवार और समाज से छुपकर काम करती रही. और बहुत सी पुरुषों के साथ ही सामने आकर.

 

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