नितिन त्रिपाठी
“सर्वे भवन्तु सुखिनः” की भावना से प्रेरित भारत का परंपरागत समाज और आधुनिक अर्थव्यवस्था आज द्वंद्व में खड़े हैं। एक ओर ‘विविधता, समानता और समावेश’ की अवधारणा को पश्चिम से आयातित कर अपनाने की होड़ लगी है, तो दूसरी ओर ‘मेधा, उत्कृष्टता और बुद्धिमत्ता’ की नीति अपनी राह बना रही है। इस बहस के केंद्र में प्रश्न यह है कि क्या विविधता को प्राथमिकता देने से कार्यक्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, और क्या विशुद्ध प्रतिभा आधारित चयन समाज में किसी प्रकार की असमानता को जन्म देता है?
भारत में यह प्रश्न केवल कॉर्पोरेट की सीमा तक सीमित नहीं है; यह हमारे शिक्षण संस्थानों, सरकारी तंत्र और सामाजिक न्याय के मॉडल तक फैला हुआ है। आरक्षण व्यवस्था हो या सरकारी नौकरियों में भर्ती प्रक्रिया, हमारे देश में यह मुद्दा हमेशा से विवादास्पद रहा है। लेकिन क्या विशुद्ध योग्यता आधारित चयन से ही समाज में न्याय और संतुलन आ सकता है? या फिर विविधता को बढ़ावा देना भी उतना ही आवश्यक है?
भारत में मेरिट का प्रश्न केवल व्यक्ति की प्रतिभा तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे सामाजिक संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। एक आदर्श स्थिति में, यदि सभी को समान अवसर मिले हों, तब मेरिट का सीधा आकलन संभव होता। लेकिन जब ऐतिहासिक अन्याय और संसाधनों की असमान उपलब्धता का प्रभाव अब तक बना हुआ हो, तब केवल मेरिट की बात करना अधूरा प्रतीत होता है।
पश्चिम में जिन कंपनियों ने विविधता आधारित नीति अपनाई, उनमें से कुछ ने पाया कि इससे संगठनात्मक संस्कृति समृद्ध हुई, लेकिन उत्पादकता पर इसका प्रभाव अस्पष्ट रहा। वहीं, कुछ कंपनियों ने योग्यता आधारित चयन को अपनाकर अपनी कार्यक्षमता में वृद्धि की, लेकिन इससे सामाजिक संतुलन बिगड़ने की आशंका उत्पन्न हो गई। भारत में भी इस द्वंद्व का स्पष्ट उदाहरण सिविल सेवा भर्ती प्रणाली में देखा जा सकता है। यूपीएससी जैसी परीक्षाएं योग्यता आधारित मानी जाती हैं, लेकिन आरक्षण नीति यह सुनिश्चित करने का प्रयास करती है कि ऐतिहासिक रूप से वंचित वर्ग भी सत्ता संरचना में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सके।
वास्तव में इन्हें प्रतिस्पर्धी नहीं, बल्कि पूरक दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। कॉर्पोरेट जगत में भी यह संभव है कि कंपनियां ऐसे मॉडल अपनाएं जो मेरिट और विविधता दोनों को प्रोत्साहित करें। आज जब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डेटा एनालिटिक्स कंपनियों को यह अनुमान लगाने की शक्ति दे रहे हैं कि कौन-सा उम्मीदवार सबसे उपयुक्त साबित होगा, तब यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि सामाजिक संदर्भ को नज़रअंदाज़ न किया जाए।