सवर्ण लैंड बनाने की मांग

वह दौर जब सवर्ण लैंड बनाने की मांग हो रही थी और अपराधी सवर्ण हुआ करते थे…

मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होते ही जगह जगह दीवारों पर अलग सवर्ण लैंड बनाने की मांग के नारे लिखे गए

जीतेन्द्र नारायण

1990 का साल बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िला और शहर के लिए एक Transition का साल था जो प्रशासन से लेकर राजनीति तक में एक बड़ा बदलाव लेकर आया। मार्च 1990 में लालू प्रसाद यादव जनता दल की सरकार के मुख्यमंत्री बन चुके थे मगर अगस्त 1990 तक कोई प्रशासनिक बदलाव नहीं किया. पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के समय के ही सारे ज़िलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक काम कर रहे थे.

शुरू हो गई दलितों पिछड़ों की पिटाई

अगस्त 1990 में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा करते ही मुजफ्फरपुर शहर में उग्र आंदोलन शुरू हो गया. बिहार विश्वविद्यालय, जिस पर कि भूमिहार जाति का वर्चस्व था, मंडल विरोधी आंदोलन का केन्द्र बन गया. बिहार विश्वविद्यालय के पीजी छात्रावास के पास गन्नीपुर में मंडल विरोधी छात्रों के समूह ने शहीद एक्सप्रेस ट्रेन में आग लगा दी. जहाँ-तहाँ पिछड़े और दलितों की पिटाई की गई. चूँकि थाना प्रभारी से लेकर आरक्षी अधीक्षक और ज़िलाधिकारी तक अगड़ी जातियों से थे, इसलिए इन अधिकारियों का गुप-चुप समर्थन भी इन्हें हासिल था. भूमिहार बहुल गन्नीपुर में एक सवर्ण लैंड की माँग करने वाले समूह का भी गठन हुआ और जगह-जगह दीवारों पर अलग सवर्ण लैंड की माँग के नारे लिख दिए गए.

प्रशासन में बदलाव को मजबूर हुए लालू

अगस्त 1990 में ही मंडल आयोग के विरोध में आंदोलन के बाद पहली बार मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपने कार्यकाल का प्रशासनिक हेर-फेर किया. मुजफ्फरपुर सहित लगभग सभी ज़िलों में ज़िलाधिकारी और पुलिस अधिकारी अधिकतर अनुसूचित जाति और जनजाति के बनाए गए. इनमें से अधिकतर अधिकारियों को पहले कभी ज़िलों की कमान नहीं सौंपी गई थी.

अधिकारियों ने किया बदलाव

मुजफ्फरपुर में हेमचंद्र सिरोही ज़िलाधिकारी बनाए गए. एक तरह से हेमचंद्र सिरोही ने न केवल मुजफ्फरपुर का प्रशासनिक तौर-तरीक़ों को बदल डाला बल्कि जिले की राजनीति को भी गहरे तक प्रभावित किया. दलित-पिछड़ों की आवाज़ सुनी जाने लगी और थानों से लेकर आरक्षी अधीक्षक, ज़िलाधिकारी तक आसानी से अपनी बात पहुँचाने में कामयाब हुए. हेमचंद्र सिरोही ने ही मीनापुर के शहीद जुब्बा सहनी को सरकारी फ़ाइलों से बाहर निकाला और मुजफ्फरपुर शहर के बीचोंबीच जुब्बा सहनी के नाम पर एक पार्क बनवा डाला. शहर के मुख्य चौराहे कल्याणी चौक पर कर्पूरी ठाकुर के नाम पर एक टॉवर का निर्माण करवाया.

अनुसूचित जाति को भी मिली जगह

बाद में राजीव गौवा (वर्तमान केन्द्रीय गृह सचिव) ज़िलाधिकारी, एएस राजन आरक्षी अधीक्षक एवं एके विश्वास तिरहुत प्रमंडल के आयुक्त बनाए गए. एएस राजन और एके विश्वास दोनों अनुसूचित जाति के थे. एएस राजन पहले पुलिस अधिकारी थे जिन्होंने मुजफ्फरपुर के तत्कालीन अपराधियों और माफ़ियाओं के खिलाफ के खिलाफ ऑपरेशन चलाकर उनका अंत किया. इन अपराधियों में से अधिकांश अगड़ी जातियों के थे. अपराधी छोटन शुक्ला की शवयात्रा में गोपालगंज के ज़िलाधिकारी जी कृष्णय्या की मुजफ्फरपुर के खबरा गाँव के पास हुई हत्या के समय 1994 में एएस राजन ही मुजफ्फरपुर के एसपी थे.

शिक्षा में भी  हुआ बदलाव

एके विश्वास आयुक्त के साथ-साथ बिहार विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलपति भी बनाए गए थे. लालू प्रसाद यादव की सरकार ने बिहार विश्वविद्यालय का नामकरण डॉ भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय कर दिया था, मगर अगड़ी जातियों (विशेषकर भूमिहार) के शिक्षकों और छात्रों की दबंगई के कारण डॉ भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय का बोर्ड नहीं लग पाया था.

जब लगा विश्वविद्यालय पर भीमराव अंबेडकर के नाम का बोर्ड

एके विश्वास ने कुलपति के रुप में पहली बार डॉ भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय का बोर्ड लगवाया, बाबा साहब की एक मूर्ति विश्वविद्यालय परिसर में लगवाई और 1994 में पहली बार विश्वविद्यालय में डॉ भीमराव अम्बेडकर जयंती समारोह मनवाया. यह समारोह भी पुलिस की भारी उपस्थिति और सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत जिले भर के लोगों के जमावड़े के बाद संभव हो पाया था.

 

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