Sonia Gandhi Vs DK Shivakumar

अब कर्नाटक का खेल Sonia Gandhi Vs DK Shivakumar  हो गया है. सोनिया गांधी नहीं चाहतीं कि कोई मजबूत नेता पार्टी में आए और वह राहुल गांधी या प्रियंका गांधी को चुनौती देने की स्थिति में पहुंचे. वहीं पिछले कुछ साल से डीके शिवकुमार को मजबूत राष्ट्रीय नेता के रूप में देखा जाने लगा है…

आखिरकार कांग्रेस ने अपनी घिसी पिटी और पुरानी रणनीति के तहत कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद के 4-5 दावेदार खड़े कर दिए. सोनिया गांधी शिमला में बैठी हैं. कांग्रेस को वही गाइड कर रही हैं और अंततः उन्ही के आदेश पर कांग्रेस फैसला करने वाली है. आखिर क्या है वजह, जिसके कारण कांग्रेस खुद कर्नाटक में विद्रोह और अस्थिरता को समर्थन दे रही है…

कांग्रेस का विनाशकारी लालची 2 प्लस 3 फॉर्मूला

कर्नाटक में 135 लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस राज्य ही नहीं, देश में भी अपनी छवि धूल धूसरित कर रही है. पहले ही दिन पार्टी ने सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बना दिया और पावर शेयरिंग फॉर्मूला साझा किया कि आधे वक्त सिद्धारमैया मुख्यमंत्री रहेंगे और आधे वक्त तक डीके शिवकुमार मुख्यमंत्री रहेंगे. डीके शिवकुमार ने यह फार्मूला खारिज कर दिया. टाइम्स आफ इंडिया के मुताबिक कांग्रेस नेतृत्व अब नया फॉर्मूला लेकर आया है, जिसके तहत पहले 2 साल सिद्धारमैया मुख्यमंत्री रहेंगे और उसके बाद 3 साल तक डीके शिवकुमार मुख्यमंत्री रहेंगे. मायावती और कल्याण सिंह से लेकर भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव तक लगातार देखा गया है कि पावर शेयरिंग फॉर्मूला फ्लॉप रहा है. इसके बावजूद कांग्रेस बार-बार यह आजमा रही है.

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लगातार पार्टी से किनारे किए जा रहे डीके शिवकुमार

डीके शिवकुमार को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने की मांग उसी समय से चल रही है, जब उन्होंने महाराष्ट्र और गुजरात में पार्टी के विधायकों को बचाने की कवायद की. वह उस समय नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीति फेल करने में और अपना लक्ष्य हासिल करने में सफल भी रहे. उधर कांग्रेस लगातार नाटक करती रही कि उसे पार्टी अध्यक्ष बनने लायक कोई नेता ही नहीं मिल रहा है. डीके शिवकुमार को को साइडलाइन कर सोनिया गांधी अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष पद पर डटी रहीं और अध्यक्ष पद खाली रहा. डीके शिवकुमार को कर्नाटक कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और वह कर्नाटक में भी प्रचंड बहुमत से जीतकर आ गए.

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नरेंद्र मोदी की तरह ही विपरीत परिस्थितियों में विजेता बन रहे हैं डीके शिवकुमार

नरेंद्र मोदी-अमित शाह के खिलाफ लगातार हो रही डीके शिवकुमार की जीत कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को डरा रहा है. राजतंत्र से लेकर लोकतंत्र में केंद्र हमेशा से कमजोर क्षेत्रीय क्षत्रप चाहता है. डीके शिवकुमार उसी तरह से लगातार जीत हासिल कर रहे हैं, जैसे एक दौर में नरेंद्र मोदी ने जीत हासिल की थी.

जब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी तो नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर बताए जाने, उनकी विदेश यात्राओं पर प्रतिबंध लगाए जाने, उनके डिप्टी कमांडर अमित शाह को जेल भेजे जाने सहित तमाम धतकर्म हुए. सभी थपेड़ों को झेलते हुए नरेंद्र मोदी आगे बढ़ते रहे और एक ताकतवर नेता के रूप में उभरे. उन्होंने पार्टी के भीतर के प्रतिस्पर्धियों को भी मात दिया, विपक्ष को भी मात दिया.

कुछ ऐसा ही डीके शिवकुमार के साथ हो रहा है. उन्हें जहां से भी आर्थिक समर्थन मिलने की संभावना रही है, उस पर हमले हुए. कैफे कॉफी डे के मालिक और डीके के रिश्तेदार आत्महत्या करने को मजबूर हो गए. खुद डीके शिवकुमार पर मनी लांड्रिंग और आय से अधिक संपदा रखने के आरोप में जेल भेजे गए. प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई दोनों संस्थाओं को डीके शिवकुमार के पीछे लगा दिया गया. उसके बावजूद वह लगातार विजय पथ पर चल रहे हैं.

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शिमला में बैठीं सोनिया गांधी का खेल

भारतीय जनता पार्टी को शिवकुमार से खतरा महसूस हो ही रहा है, लेकिन सोनिया गांधी को भी कहीं न कहीं यह डर सता रहा है कि उनके पुत्र व पुत्री की राजनीति का आडवाणी न हो जाए. यही वजह लगती है, जिसके कारण कांग्रेस की इस प्रचंड जीत के बाद उन्होंने डीके शिवकुमार के खिलाफ प्रतिस्पर्धी खड़े किए. पहले ही दिन से यह प्रचारित किया जाने लगा कि सिद्धारमैया के पास ज्यादा विधायकों का समर्थन है. देश के हर अखबार में यह खबर आने लगी कि सिद्धारमैया का पलड़ा भारी है.

आखिरकार डीके शिवकुमार को बयान देना पड़ा कि उनके पास 135 विधायकों का समर्थन है. पार्टी विधायकों का गुप्त मतदान हुआ है. पर्यवेक्षकों ने उस मतदान की रिपोर्ट कांग्रेस अध्यक्ष को नहीं सौंपी है. कांग्रेस अध्यक्ष ने खुलासा नहीं किया है कि किसके पक्ष में कितने विधायक हैं. ऐसे में कांग्रेस नेता सिद्धारमैया यह दावा कैसे कर सकते हैं कि उन्हें बहुमत विधायकों का समर्थन है.

इतना ही नहीं, अखबारों ने यह भी छाप दिया कि 60 प्रतिशत विधायक सिद्धारमैया के साथ हैं और 40 प्रतिशत विधायक  डीके शिवकुमार के साथ हैं. स्वाभाविक है कि कांग्रेस ही यह अंडर टेबल ब्रीफिंग कर रही है कि सिद्धारमैया के पास बहुमत है.

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क्या सोनिया गांधी मान लेंगी कि शिवकुमार झंडे के नीचे आ गए

डीके शिवकुमार ने पहले तो स्वास्थ्य का बनाना बनाकर दिल्ली आने से मना कर दिया. उसके बाद वह दिल्ली पहुंचे हैं. कांग्रेस पार्टी को अपनी मां बताया है. साथ ही वह संभवतः सोनिया गांधी को भी अपनी मां मानने को तैयार हैं. खबरों के मुताबिक वह सोनिया गांधी से मिलेंगे. लेकिन असल समस्या यह है कि क्या सोनिया गांधी भी शिवकुमार को अपना बेटा मान लेंगी? या वह डर के मारे मानने को मजबूर होंगी कि शिवकुमार के पास न सिर्फ विधायकों का समर्थन है, बल्कि जनादेश उनके साथ है और अगर उन्हें मुख्यमंत्री न बनाया गया तो वह आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी की तरह पूरी पार्टी अपनी जेब में लेकर बैठ जाएंगे और कर्नाटक के क्षत्रप बन जाएंगे.

ऐसे में सोनिया की दुविधा बड़ी है कि वह बेटे के लिए संभावित खतरे को रोकें, या पार्टी को डूब जाने दें. स्वाभाविक है कि उनके रणनीतिकार इसी कवायद में जुटे हुए होंगे कि क्या करना है. और संभवतः इसी फॉर्मूले के तहत 2 साल सिद्धारमैया और 3 साल डीके शिवकुमार को मुख्यमंत्री बनाए जाने का फॉर्मूला दे रहे हैं, जिससे शुरुआती दो साल में ही शिवकुमार को निपटा दिया जाए.

छत्तीसगढ़ में भी सोनिया ने महसूस किया था खतरा

कांग्रेस ने यही काम छत्तीसगढ़ में किया. जब वहां पार्टी प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई तो भूपेश बघेल को राहुल-प्रियंका के लिए खतरा माना. उनके खिलाफ टीएस सिंहदेव ही नहीं, उनके मित्र ताम्रध्वज साहू को भी उनके खिलाफ खड़ा किया गया. मुख्यमंत्री पद के तमाम दावेदार खड़े किए गए. लगातार खबरें प्लान कराई गईं कि बहुमत टीएस सिंहदेव के साथ है. लेकिन आखिरकार पावर शेयरिंग फॉर्मूले के तहत भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे. उसके बाद भी उनके खिलाफ लगातार विद्रोह बनाए रखा गया. उनकी इच्छा के मुताबिक एक यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर तक नियुक्त नहीं करने दिया गया. राज्य में 27 प्रतिशत आरक्षण देकर ओबीसी राजनीति करने की कोशिश की, वहां भी उन्हें पीछे ढकेल दिया गया. राहुल गांधी ने ओबीसी पॉलिटिक्स अपने हाथ में ले ली कि इससे फायदा है तो हम खुद ओबीसी राजनीतिक करेंगे.

भूपेश बघेल ने आत्माराम विद्यालयों का प्रचार करने कोशिश कर नेता बनने की कवायद की तो पत्रकारों और कांग्रेस नेताओं की एक पूरी लॉबी लगा दी गई कि वह किस तरह आदिवासियों पर अत्याचार कर रहे हैं. आखिरकार जब भूपेश बघेल ने नेता बनने की सारी कवायदें छोड़ दीं तो पावर शेयरिंग फॉर्मूला को किनारे रखकर उन्हें एक्सटेंशन दे दिया गया.

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अब कर्नाटक का मामला फंसा हुआ है, क्योंकि वहां भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को वही खतरा दिख रहा है. बल्कि कर्नाटक का खतरा छत्तीसगढ़ की तुलना में ज्यादा है. इसकी वजह यह है कि शिवकुमार को भूपेश बघेल की तुलना में ज्यादा जनसमर्थन है, साथ ही वह शानदार संगठनकर्ता भी हैं.

 

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