अनुवाद में उसी तरह क्रियेटिव होना पड़ता है, जिस तरह लेखक क्रियेटिव होता है
प्रिय दर्शन
- सलमान रुश्दी के नए उपन्यास का नाम विक्ट्री सिटी है. यह विजयनगर का अंग्रेज़ी अनुवाद है.
- इसे देखते हुए ख़याल आया कि रुश्दी अपनी किताबों में बीहड़ अनुवाद का इस्तेमाल करते रहे हैं. 27 साल पहले मैंने उनके उपन्यास ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ का अनुवाद किया था जो ‘आधी रात की संतानें’ के नाम से वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ. उपन्यास में रुश्दी एक जगह ‘fool from somewhere’, ‘idiot from somewhere’ आदि का इस्तेमाल करते हैं. अचानक मेरा ध्यान गया कि यह तो ‘मूर्ख कहीं के’, ‘बेवकूफ कहीं के’ का शाब्दिक अनुवाद है। ‘कहीं के’ को रुश्दी ने ‘फ्रॉम समव्हेयर’ बना दिया है.
- रुश्दी दरअसल भाषा के साथ पूरी तरह खिलवाड़ करने वाले लेखक हैं. चर्चगेट स्टेशन जाती ट्रेन के बारे में वे लिखते हैं- the train was yellow browning towards Churchgate station. उन्होंने yellow brown को क्रिया बना डाला क्योंकि उन्हें बताना था कि ट्रेन अपनी भूरी-पीली रंगत के साथ चर्चगेट स्टेशन की ओर जा रही है. हालांकि ऊपर वाला वाक्य मैंने अपनी स्मृति से लिखा है, इसलिए उसमें कुछ फेरबदल हो सकता है मगर मूल बात यही है कि रुश्दी ने रंगों के मेल को क्रिया की तरह इस्तेमाल किया.
- हालांकि रुश्दी बहुत सतर्क लेखक हैं. वे अपने उपन्यास की हिंदी की पांडुलिपि देखना चाहते थे. मुझे लग रहा था कि वह क्या देखेंगे. लेकिन उस अनुवाद में उन्होंने एक असावधान चूक खोज निकाली. उपन्यास के एक अध्याय का शीर्षक है- ‘Fisherman’s Pointing Finger. मैंने लिखा था- ‘मछुआरे की इशारा करती उंगलियां’. रुश्दी ने कलम से ‘उंगलियां’ शब्द काटा और लिखा- finger, not fingers.
- कुछ साल बाद- शायद १९९८ में- मैं नर्मदा पर केंद्रित अरुंधति राय की किताब ‘द ग्रेटर कॉमन गुड’ का अनुवाद कर रहा था. किताब में उन्होंने एक जगह आदिवासियों के घरों के लिए ‘fragile’ शब्द का इस्तेमाल किया. मैंने इसके लिए ‘कमज़ोर’ शब्द चुना. लेकिन अरुंधति राय ने कहा कि वे ‘कमज़ोर’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहतीं. मज़बूत या कमज़ोर का एक संदर्भ होता है. मैंने सुझाया- भंगुर. लेकिन लगा कि यह कम लोगों की समझ में आएगा. अंत में ‘नाजुक’ शब्द के इस्तेमाल पर सहमति बनी. हालांकि घर के साथ ‘नाजुक’ विशेषण मुझे अटपटा लग रहा था लेकिन मुझे लगा कि एक लेखक को भाषा के साथ इतनी छूट लेने का अधिकार है.
- दरअसल अनुवादक के तौर पर हम भाषा की सटीकता को लेकर जितने सतर्क होते हैं, संभवत खुद लेखक नहीं होते. वे शब्दों में, क्रियाओं में और मुहावरों में मनचाही तोड़फोड़ करते रहते हैं और अनुवाद करते हुए हम उनके बिल्कुल सटीक अनुवाद खोजने में अपना बौद्धिक पसीना बहाते रहते हैं.
- यह साल 87 की बात होगी. मैं बीए में पढ़ता था. मेरे एक मित्र राजेश सिन्हा ने मुझे खुशवंत सिंह की नई प्रकाशित किताब ‘दिल्ली’ भेंट की. तब अंग्रेज़ी ठीक से नहीं आती थी. समझ-समझ कर पढ़ने की कोशिश किया करता था. किताब के एक अध्याय में एक राजा का जिक्र आता है. वह कह रहा है, we went there, we thought आदि. मैं बहुत देर परेशान रहा कि राजा तो अकेला है, वह किस दूसरे की बात कर रहा है! यह काफी देर से समझ में आया कि दरअसल खुशवंत सिंह ने हिंदी में एकवचन के रूप में भी प्रचलित ‘हम’ का अनुवाद सीधे-सीधे ‘We’ कर दिया है. यानी राजा अपने अंदाज़ में कह रहा था- हम गए, हमने देखा या सोचा आदि.
- सच है कि अनुवाद करते हुए मैंने काफी कुछ सीखा- शब्दों की रंगत पहचानी, कथा कहने के ढंग देखे, लेखकों का भाषिक दुस्साहस भी देखा और यह भी समझा कि अगर लेखक प्रयोगशील है तो अनुवादक को भी प्रयोगशील होना होगा. अगर मैंने अनुवाद न किए होते, तो आज जैसा भी लेखक हूं, उससे कुछ कमतर लेखक होता.
- बरसों पहले जेएनयू में रूसी के प्राध्यापक डॉक्टर वरयाम सिंह ने रूसी कविताओं के हिंदी अनुवादों पर मुझसे काम कराया था. पुश्किन, लेर्मेतेव, त्यूतचेव, मायाकोव्स्की, त्स्वेतायेवा, वोज़्नेसेंस्की, येव्तुशेन्को जैसे कवियों के एकाधिक हिंदी अनुवाद उन्होंने सुलभ कराए. मसलन मायाकोवस्की को लेकर राजेश जोशी, श्रीकांत वर्मा और संभवत: मदनलाल मधु के अनुवाद थे. मैं देखकर हैरान था कि एक ही कवि के अलग-अलग अनुवाद किस तरह नितांत भिन्न रचनाओं के रूप में सामने आ रहे हैं. जाहिर है, अनुवादक के अपने व्यक्तित्व की छाप अनुवादों पर स्वाभाविक रूप से चली आती है. इस लिहाज से अनुवाद एक बड़ा रचनात्मक कर्म भी है.
- इस रचनात्मकता का एक सुंदर सबूत मुझे राजेंद्र यादव से मिला. ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ की एक किरदार नसीम को बच्चों ने एक अलग नाम दिया हुआ है- Reverend mother. वह एक स्थूलकाय और दबंग बुज़ुर्ग है जिसे पीठ पीछे बच्चे इसी नाम से पुकारते हैं. मैं समझ नहीं पा रहा था कि इसका अनुवाद क्या करूं. कुछ लोगों से राय भी ली. विष्णु खरे ने सुझाया- ‘मुक़द्दस अम्मी’. लेकिन यह जंच नहीं रहा था. मैंने राजेंद्र यादव से पूछा. उन्होंने छूटते कहा- इसे ‘अम्मी हुज़ूर’ करो. मैं हैरान था- कितना सहज-स्वाभाविक अनुवाद!
(लेख प्रिय दर्शन की फेसबुक वॉल से)