दूसरे से पाने वाले दुख धोखा और कष्टों का सृजन अक्सर हम खुद करते हैं

दूसरे से पाने वाले दुख धोखा और कष्टों का सृजन अक्सर हम खुद करते हैं

तृष्णा, क्लेश, अविद्या। ये दुख की वजहें हैं। काम क्रोध, मोह आदि क्लेश है। क्लेश ही समस्या की वजह है। औसत व्यक्तियों का जीवन काम क्रोध लोभ आदि में बीत जाता है। वह उसी क्लेश के पीछे पीछे भागते हैं कि उसमें सुख है। क्लेश को हटाने से ही सुख मिल सकता है।
इस क्लेश की वजह है अविद्या। सहज आत्मा ग्रह यानी आत्म को पकड़े रहना और सच को जानना। यह मकान, कार, गर्मी धूप, यह सब चीजें सच हैं, यह जगत मिथ्या नहीं है। लेकिन अगर आप इसे सूक्ष्मतम रूप में करते जाएंगे तो इनमें एक शून्यता दिखेगी। श्रीधर राणा रिनपोछे एक मकान का उदाहरण देते हैं कि मकान को सूक्ष्मता से देखने पर वह जमीन, नींव, पिलर, ईंट, छत दिखेगी, जिसके समुच्चय को हम मकान समझते हैं। यानी जो चीज हमको मोटे तौर पर नज़र आती है, अगर उसे सूक्ष्म रूप में देखें तो वह तमाम बिखरी चीजों का समुच्चय लगेगी और उसके भविष्य को देखेंगे तो वह फिर आपको उसी रूप में बिखरती नज़र आएगी, जैसी पहले थी!
इस बदलाव को ध्यान लगाकर समझा जा सकता है कि कैसे हमारे शरीर में बाल, रोएं, दांत, नाखून, त्वचा से लेकर किडनी लिवर, आंतें, फेफड़ा, रक्त, पसीना सब कुछ प्रतिपल बदल रहा है। मस्तिष्क तो हर पल के प्रवाहों के मुताबिक बदलता रहता है, हर वक्त बदलाव के मुताबिक उसमें विचार आते रहते हैं।
इसी शून्यता को हम अपना अस्तित्व मानकर इससे चिपकते हैं इससे प्रेम या घृणा करते हैं और क्लेश पैदा करते हैं। और यह क्लेश दुख का कारण बनता है। कभी सुख क्रिएट करते हैं और कभी दुःख क्रिएट करते हैं और फिर अपने क्रिएशन से किसी न किसी तरीके से चिपकते हैं और दुःख पाते हैं।
जितने भी रिश्ते, सम्बन्ध हमने क्रिएट किए हैं, उसका सूक्ष्म अवलोकन करें तो उनसे अतिशल लगाव या अतिशय नफरत के कारण हम बहुत ज्यादा सुख या बहुत ज्यादा दुःख महसूस करते हैं। मतलब आपके किसी दुःख का अलग से स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, वह प्रतीत्यसमुत्पाद का परिणाम है।
यह अति हटाकर अगर हम स्वतंत्र रूप से इन बदलावों के द्रष्टा बन जाएं, इन बदलावों को चेतन होकर, प्रज्ञा जगाकर बुद्ध बनकर देखें, मध्य मार्ग अपनाएं, तटस्थ भाव रखें तो दुःख की मात्रा कम होने लगती है।
हम अगर कोई दुख पा रहे हैं, किसी से धोखा पा रहे हैं, किसी से कष्ट पा रहे हैं तो उसका सृजन अक्सर हम खुद किए हुए होते हैं और ज्यादातर इसी जन्म में करते हैं। और बहुत कम अंश आपके पूर्वजों के क्रिएट किए गए संस्कार, समाज द्वारा क्रिएट किए गए संखारा दुःख देते हैं। इनके प्रति तटस्थ होना क्रिएट किए गए संस्कार और दुखों को दूर कर देता है। इसी तटस्थ भाव की प्रैक्टिस करने निरन्तर हो रहे बदलावों और शून्यता को देख पाने को दुःखनिरोधगामिनीप्रतिपदा कहा गया है।
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