यदि आपके पास खेती हो तो अधिक दिन तक नौकरी मत करना

विश्वजीत सिंह

भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के एक सीनियर साइंटिस्ट विजय श्रीवास्तव सर से एक बार मेरा डिस्कसन हो रहा था, उन्होंने कहा कि उनके पास खेती होती तो नौकरी छोड़ दिये होते, आगे उन्होंने मुझे सलाह देते हुए कहा कि:
” यदि आपके पास खेती हो तो अधिक दिन तक नौकरी मत करना ”

मैंने चौकते हुए पूछा कि आप सेंट्रल गवर्नमेंट में एक सबसे रिस्पेक्टेड नौकरी करते हुए भी यह सलाह क्यों दे रहे हैं..? तब उन्होंने व्यक्ति, समाज, जीवन, मैनेजमेंट, लीडरशिप पर अपने अनुभवों की विस्तृत चर्चा की जिससे मैं खुद को पूर्ण सहमत पाया….

बचपन में अपने गांव, परिवार में बड़े बुजुर्गों से एक
पुरानी कहावत सुनते थे जो हमारे देश में बहुत प्रचलित है:

“उत्तम खेती मध्यम बान,
निकृष्ठ चाकरी भीख निदान”

अर्थात जीविका के लिए सबसे बेहतर पेशा तो खेती ही है जो पहले स्थान पर है और दूसरे दर्जे पर व्यापार है, जबकि नौकरी को निकृष्ठ माना गया है…

फेसबुक पर रिटायर्ड हुए लोगों का अपने गांव , खेत खलिहान, बाग बगीचे के प्रति प्रेम, आलिंगन देखकर लगता है कि मनुष्य प्रकृति की देन है, उसी का सानिध्य उसे आकर्षित करता है, नौकरी, जॉब, व्यापार उसकी बेसिक निड्स को पुरा करने का मात्र साधन ( means) है, साध्य ( end) नही..

आधुनिक दार्शनिक होब्स के इस विचार से सहमत नहीं कि मनुष्य एकाकी, अहमवादी और अपनी तृष्णा ( appetite) का दास होता है…बल्कि रूसो के इस विचार से सहमत हैं कि प्राकृतिक मनुष्य पूर्ण आनंदमय, जीवन जीता है, वह पूर्ण स्वतन्त्र, संतुष्ट और आत्मनिर्भर होता है..

परंतु सभ्यता के उदय के साथ विषमता का जन्म होता है, विज्ञान, निजी संपत्ति, श्रम विभाजन इत्यादि के आविर्भाव से मनुष्यों की प्राकृतिक समानता और स्वतन्त्रता लुप्त होती गई…

मार्क्यूज़े के अनुसार, आधुनिक प्रौद्योगिक समाज (Technological Society) ने एक ‘मिथ्या चेतना’ (False Consciousness) को बढ़ावा देकर मानव मात्र को अपने शिकंजे में कस रखा है। यह मिथ्या चेतना भय और उपभोक्तावाद पर आधारित है…

यह वर्तमान भोगवादी सुख (Hedonistic Pleasure) की मिथ्या चेतना है जो उसके अलगाव पर पर्दा डाल देती है। मनुष्य सोने के पिंजरे में बंद पंछी की तरह उसके आकर्षण में इतना डूब चुका है कि वह मुक्त आकाश में उड़ान भरने के आनंद को भूल गया है…

इस तरह पूंजीवादी समाज की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इसमें मनुष्य न केवल अपनी स्वतंत्रता खो चुका है, बल्कि वह यह भी नहीं जानता कि वह उसे खो चुका है…

यह सभ्यता मानव जीवन को पाशविक अस्तित्व का विषय बना देता है जिससे साहित्य, कला और संस्कृति के प्रति उसकी कोई अभिरुचि नहीं रह जाती। दूसरे शब्दों में, पूंजीवादी प्रणाली मानवीय प्रतिभा और गुणों को उन परिस्थितियों का दास बना देती है, जो पूंजी और संपत्ति के निजी स्वामित्व से पैदा होती हैं…

श्रमिक की इस दुर्दशा का मतलब यह नहीं कि व्यवसायी, व्यापारी की मानवीयता ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। दरअसल, पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत स्वयं पूंजीपति भी मुद्रा की तानाशाही का गुलाम बन जाता है। अधिक-से-अधिक लाभ की लालसा उसे चैन नहीं लेने देती और वह इसके पीछे सारे मानवीय गुणों से शून्य होता चला जाता है। अतः संपन्नता के बीच भी वह सच्ची स्वतंत्रता से वंचित रहता है…

दूसरे, मनुष्य प्रकृति से पराया हो जाता है। फैक्ट्री में मशीनों या कार्यालय में कम्प्युटर पर काम करते-करते प्रकृति से उसका संबंध टूट जाता है और वह प्रकृति के रमणीय दृश्यों तथा वातावरण का रस नहीं ले पाता…

जैसे खेत में काम करने वाला किसान काले काले बादलों को देखकर झूमता है, रोपाई करते हुए महिलाएं गातीं हैं या फ़सल कंटने पर सारे किसान मिल-जुलकर नाचते-गाते हैं या त्योहार मनाते हैं, वैसी रसानुभूति कारखाने के मज़दूरों के लिए दुर्लभ हो जाती है। इस तरह मनुष्य प्रकृति से पराया हो जाता है और मशीन का पुर्जा बनकर रह जाता है। उसे बंधा-बँधाया काम करना पड़ता है जिसमें एकरसता आ जाती है जो कि बेगानेपन की स्थिति ( state of alienation) है….

यह अभिव्यक्त होता है प्रेमचन्द के गोदान उपन्यास में भी, जब होरी अपने बेटे से कहता है: ” खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी मे तो नही है ”

यहां प्रेमचन्द खेती मे मरजाद के माध्यम से स्वामित्व ( sense of ownership) और स्वतन्त्रता को sense of belongingness को ही रेखांकित कर रहे हैं जो कि उपर लिखा गया है….

इस पोस्ट का उद्देश्य नौकरी,व्यापार का त्याग नही बल्कि खुद को प्रकृति के अधिक नजदीक रहने मात्र से है… किसानी दौलत बनाने का उपक्रम नही है, अपितु नेचरल जीवन शैली है.

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